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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑। य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रि॑पो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । रि॒च्य॒ते॒ । अंश॑: । धन॑म् । न । जि॒ग्युष॑: ॥ य: । इन्द्र॑: । हरि॑ऽवान् । न । द॒भ॒न्ति॒ । तम् । रिप॑: । दक्ष॑म् । द॒धा॒ति॒ । सो॒मिनि॑ ॥५९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उदिन्न्वस्य रिच्यतेंऽशो धनं न जिग्युषः। य इन्द्रो हरिवान्न दभन्ति तं रिपो दक्षं दधाति सोमिनि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । इत् । नु । अस्य । रिच्यते । अंश: । धनम् । न । जिग्युष: ॥ य: । इन्द्र: । हरिऽवान् । न । दभन्ति । तम् । रिप: । दक्षम् । दधाति । सोमिनि ॥५९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 3
विषय - इन्द्रः-हरिवान्-सोमी
पदार्थ -
१. (जिग्युषः धनं न) = विनयशील पुरुष के धन के समान (अस्य) = इस पुरुष का (य:) = जोकि (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनता है, उस जितेन्द्रिय पुरुष का (अंश:) = अंश (नु) = अब (इत्) = निश्चय से (उत् रिच्यते) = उद्रिक्त होता चलता है-इसका अंश बढ़ता ही जाता है। पिता की सम्पत्ति में भाग को 'अंश' कहते हैं। प्रभु पिता हैं। उनकी सम्पत्ति में इस जितेन्द्रिय पुरुष का भाग बढ़ता ही जाता है, अर्थात् इसका जीवन अधिक और अधिक दिव्य होता चलता है। २. [यः]-जो (हरिवान्) = जितेन्द्रियता द्वारा सोम-रक्षण करता हुआ प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनता है, (तम्) उस प्रशस्तेन्द्रियाश्वोवाले पुरुष को (रिपः न दभन्ति) = शत्रु हिसित नहीं करते। यह रोग व वासनारूप शत्रुओं का शिकार नहीं होता। वे प्रभु (सोमिनि) = इस सोमरक्षक पुरुष में (दक्षं दधाति) = बल की स्थापना करते हैं।
भावार्थ - जो जितेन्द्रिय बनता है-उसमें प्रभु की दिव्यता का अंश बढ़ता जाता है। जो प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला बनता है उसे रोग व वासनाएँ हिंसित नहीं कर पाती। सोमरक्षक पुरुष में बल का वर्धन होता है।
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