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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
मन्त्र॒मख॑र्वं॒ सुधि॑तं सु॒पेश॑सं॒ दधा॑त य॒ज्ञिये॒ष्वा। पू॒र्वीश्च॒न प्रसि॑तयस्तरन्ति॒ तं य इन्द्रे॒ कर्म॑णा॒ भुव॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठमन्त्र॑म् । अख॑र्वम् । सुऽधि॑तम् । सु॒ऽपेश॑सम् । दधा॑त । य॒ज्ञिये॑षु । आ ॥ पू॒र्वी: । च॒न । प्रऽसि॑तय: । त॒र॒न्ति॒ । तम् । य: । इन्द्रे॑ । कर्म॑णा । भुव॑त् ॥५९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्त्रमखर्वं सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठमन्त्रम् । अखर्वम् । सुऽधितम् । सुऽपेशसम् । दधात । यज्ञियेषु । आ ॥ पूर्वी: । चन । प्रऽसितय: । तरन्ति । तम् । य: । इन्द्रे । कर्मणा । भुवत् ॥५९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
विषय - 'अखर्व'ज्ञान
पदार्थ -
१. हे जीवो! (यज्ञियेषु) = यज्ञात्मक कर्मों के होने पर (मन्त्रम् आदधात) = इस प्रभु से दिये गये मन्त्रात्मक ज्ञान को धारण करो, जोकि (अखर्वम्) = खर्व-अल्प नहीं है, (सुधितम्) = जो 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' ऋषियों के हृदयों में सम्यक् स्थापित किया जाता है तथा सुपेशसं-जो हमारे जीवनों का उत्तम निर्माण करनेवाला है। इस ज्ञान के अनुसार कर्म करने पर जीवन बड़ा सुन्दर बनता है। २. (यः) = जो (कर्मणा) = कर्मों के द्वारा (इन्द्रे भवत्) = सदा प्रभु में वास करता है, (तम्) = उसकी (पूर्वी प्रसितयः) = पालन व पुरण करनेवाले व्रतों के बन्धन (चन) = निश्चय से (तरन्ति) = इस भवसागर से तरानेवाले होते हैं। प्रभु-स्मरणपूर्वक कर्मों को करनेवाला अपने को सदा व्रतों के बन्धन में बाँधकर चलता है। ये व्रतबन्धन उसे इस भवसागर में विषयों की चट्टानों से टकराकर नष्ट नहीं होने देते।
भावार्थ - वेदज्ञान के अनुसार कर्म करने पर जीवन का बड़ा सुन्दर निर्माण होता है। प्रभु स्मरणपूर्वक कर्म करने पर हमारा जीवन व्रतमय बना रहता है और हम संसार के विषयों में फैसते नहीं। प्रभ में निवास करनेवाला अथवा सोम का रक्षण करता हुआ यह 'सुतकक्ष बनता है सुत को ही-सोम को ही यह अपनी शरण बनाता है। अगले मन्त्रों में ये 'सकक्ष सुतकक्ष' ही ऋषि हैं। ४ से ६ तक ऋषि मधुच्छन्दा है-उत्तम मधुर इच्छाओंवाला -
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