Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 64

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
    सूक्त - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६४

    एदु॒ मध्वो॑ म॒दिन्त॑रं सि॒ञ्च वा॑ध्वर्यो॒ अन्ध॑सः। ए॒वा हि वी॒र स्तव॑ते स॒दावृ॑धः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊं॒ इति॑ । मध्व॑: । म॒दिन्ऽत॑रम् । सि॒ञ्च । वा॒ । अ॒ध्व॒र्यो॒ इति॑ । अन्ध॑स: ॥ ए॒व । हि । वी॒र: । स्तव॑ते । स॒दाऽवृ॑ध: ॥६४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एदु मध्वो मदिन्तरं सिञ्च वाध्वर्यो अन्धसः। एवा हि वीर स्तवते सदावृधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊं इति । मध्व: । मदिन्ऽतरम् । सिञ्च । वा । अध्वर्यो इति । अन्धस: ॥ एव । हि । वीर: । स्तवते । सदाऽवृध: ॥६४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. हे (अध्वर्यों) = यज्ञशील पुरुष! तू (इत् उ) = निश्चय से (मध्वः अन्धसः) = माधुर्य का सञ्चार करनेवाले सोम से भी (मदिन्तरम्) = अधिक आनन्दित करनेवाले उस प्रभु को (आसिञ्च) = अपने में सिक्त कर। प्रभु की उपासना का भाव तेरी नस-नस में व्याप्त हो जाए। २. वह (वीरः) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करके दूर करनेवाला, (सदावृधः) = सदा से वृद्धि को प्राप्त हुआ-हुआ प्रभु (एवा हि) = गतिशीलता के द्वारा ही (स्तवते) = स्तुति किया जाता है, अर्थात् क्रियाशील पुरुष ही प्रभु का सच्चा उपासक है।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम उल्लास का कारण होता है। प्रभु का हृदय में धारण उससे भी अधिक आनन्दित करनेवाला होता है। उस 'वीर, सदावृध' प्रभु का सच्चा उपासक वही है, जो क्रियाशील है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top