अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
एन्द्र॑ नो गधि प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः। गि॒रिर्न वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः पति॑र्दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ । न॒: । ग॒धि॒ । प्रि॒य: । स॒त्रा॒ऽजित् । अगो॑ह्य: ॥ गि॒रि: । न । वि॒श्वत॑: । पृ॒थु: । पति॑: । दि॒व: ॥६४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र नो गधि प्रियः सत्राजिदगोह्यः। गिरिर्न विश्वतस्पृथुः पतिर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्र । न: । गधि । प्रिय: । सत्राऽजित् । अगोह्य: ॥ गिरि: । न । विश्वत: । पृथु: । पति: । दिव: ॥६४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
विषय - सत्राजित्
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (न:) = हमें (आगधि) = प्राप्त होइए। (प्रिय:) = आप प्रीति व आनन्द के जनक हैं। (सत्राजित्) = सदा विजय प्राप्त करानेवाले हैं। (अगोह्यः) आप किसी से संवृत किये जाने योग्य नहीं। सारे ब्रह्माण्ड को आपने अपने में आवृत किया हुआ है। आपकी महिमा कण-कण में दृष्टिगोचर होती है, आपका प्रकाश सर्वत्र है। २. आप (गिरिः न) = उपदेष्टा के समान हैं। हृदयस्थरूपेण सदा सत्कर्मों की प्रेरणा दे रहे हैं। (विश्वतः पृथ:) = आप सब दृष्टिकोणों से विशाल हैं। आपका ज्ञान, बल व ऐश्वर्य सब अनन्त हैं। आप (दिवः पतिः) = प्रकाश के-ज्ञान के स्वामी है।
भावार्थ - प्रभु हमें विजय प्राप्त कराते हैं। ज्ञानोपदेश द्वारा वे हमारा कल्याण करते हैं।
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