अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 9
येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथाँ॑ इव प्रचो॒दयः॑। पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । सिन्धु॑म् । म॒ही: । अ॒प: । रथा॑न्ऽइव । प्र॒ऽचो॒दय॑: ॥ पन्था॑म् । ऋ॒तस्य॑ । यात॑वे । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
येन सिन्धुं महीरपो रथाँ इव प्रचोदयः। पन्थामृतस्य यातवे तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । सिन्धुम् । मही: । अप: । रथान्ऽइव । प्रऽचोदय: ॥ पन्थाम् । ऋतस्य । यातवे । तम् । ईमहे ॥६३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 9
विषय - सोम-रक्षण के लाभ
पदार्थ -
१. (येन) = जिस सोमपान-जनित मद से (सिन्धुम) = ज्ञाननदी को तथा (मही:) = उपासनावृत्तियों को और (अप:) = कर्मोंको, (रथान् इव) = शरीर-रथों को जैसे लक्ष्य की ओर, उसी प्रकार (प्रचोदयः) = आप प्रेरित करते हो (तम् ईमहे) = उस मद की हम याचना करते हैं। इस सोमपान-जनित मद से हमारे अन्दर ज्ञान-नदी प्रवाहित होती है, हमारे अन्दर उपासनावृत्ति जागती है तथा हम महत्त्वपूर्ण कर्मों को करते हैं और हमारा शरीर-रथ लक्ष्य की ओर चलता है। २. हम इसलिए सोमपान-जनित मद की याचना करते हैं कि हम (ऋतस्य) = यज्ञ के व सत्य के (पन्थाम् यातवे) = मार्ग पर चलनेवाले हों
भावार्थ - सोम-रक्षण से ज्ञान की प्राप्ति होती है, उपासनावृत्ति जागती है, हम उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं, शरीर-रथ लक्ष्य की ओर बढ़ता है और हम ऋत व सत्य के मार्ग पर चलते इस सोम का रक्षण करनेवाला पुरुष 'नृमेध' बनता है-सबके साथ मिलकर चलनेवाला। यही अगले सूक्त के प्रथम तीन मन्त्रों का ऋषि है तथा चार से छह मन्त्रों तक 'विश्वमना:' ऋषि है-व्यापक मनवाला। यह नुमेध प्रार्थना करता है -
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