अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
सूक्त - भुवनः साधनो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-६३
प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नयं॒ छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । अ॒न॒य॒न् । शची॑भि: । आत् । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥ अ॒या । वाज॑म् । दे॒वऽहि॑तम् । स॒ने॒म॒ । मदे॑म । श॒तऽहि॑मा: । सु॒ऽवीरा॑: ॥६३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यञ्चमर्कमनयं छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्। अया वाजं देवहितं सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभि: । आत् । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ अया । वाजम् । देवऽहितम् । सनेम । मदेम । शतऽहिमा: । सुऽवीरा: ॥६३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
विषय - इषिरा स्वधा
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के 'स्वस्थ-शरीर, शान्त मन व दीप्त बुद्धि' वाले देव (शचीभि:) = प्रज्ञापूर्वक कर्मों से (अर्कम्) = उपास्य प्रभु को (प्रत्यञ्चम् अनयन्) = अपने अभिमुख प्राप्त कराते हैं। अन्त:स्थित प्रभु का ये दर्शन करते हैं और (आत् इत्) = अब शीघ्र ही निश्चय से (स्वधाम) = उस आत्मधारणशक्ति को (पर्यपश्यन्) = ये देखते हैं-अपने में अनुभव करते हैं, जोकि (इषिराम्) = इन्हें लोकहित के कार्यों में प्रेरित करती है। ये आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करके लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। २. हम भी (अया) = [अनया] इस आत्मधारणशक्ति से (देवहितम) = देवों में स्थापित किये गये (वाजम्) = बल को (सनेम) = प्राप्त करें और (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले होते हुए (शतं हिमा:) = शतवर्ष पर्यन्त (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। इसप्रकार इस मन्त्रभाग के ऋषि भरद्वाज' बनें।
भावार्थ - देव प्रज्ञापूर्वक कर्म करते हुए अन्त:स्थित प्रभु का दर्शन करते हैं वे आत्मधारण शक्ति का अनुभव करते हैं जो उन्हें लोकहित के कार्यों में प्रेरित करती हैं। हम भी इस आत्मधारणशक्ति के द्वारा बल प्राप्त करें और सुवीर होते हुए शतवर्षपर्यन्त उत्तम जीवनवाले बनें।
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