अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
य एक॒ इद्वि॒दय॑ते॒ वसु॒ मर्ता॑य दा॒शुषे॑। ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुत॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग ॥
स्वर सहित पद पाठय: । एक॑: । इत् । वि॒ऽदय॑ते । वसु॑ । मर्ता॑य । दा॒शुषे॑ ॥ ईशा॑न: । अप्र॑तिऽस्कुत: । इन्द्र॑: । अ॒ङ्ग ॥६३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
य एक इद्विदयते वसु मर्ताय दाशुषे। ईशानो अप्रतिष्कुत इन्द्रो अङ्ग ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एक: । इत् । विऽदयते । वसु । मर्ताय । दाशुषे ॥ ईशान: । अप्रतिऽस्कुत: । इन्द्र: । अङ्ग ॥६३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
विषय - 'ईशान-अप्रतिष्कुत' इन्द्र
पदार्थ -
१. हे (अङ्ग) = प्रिय! (यः) = जो (एकः इत्) = बिना किसी अन्य की सहायता के अकेला ही (दाशुषे मार्ताय) = दाश्वान् [दानशील] पुरुष के लिए (वसु विदयते) = निवास को उत्तम बनाने के लिए साधनभूत वसुओं को प्राप्त कराता है, वही (ईशाना:) = सबका स्वामी है। २. हे प्रिय ! यह (अप्रतिष्कत:) = किसी से कभी युद्ध के लिए न ललकारा गया (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु हैं।
भावार्थ - वे प्रभु ही 'ईशान व अप्रतिष्कुत' हैं। दाश्वान् पुरुष के लिए वसुओं को प्राप्त कराते हैं।
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