अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
क॒दा मर्त॑मरा॒धसं॑ प॒दा क्षुम्प॑मिव स्फुरत्। क॒दा नः॑ शुश्रव॒द्गिर॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग ॥
स्वर सहित पद पाठक॒दा । मर्त॑म् । अ॒रा॒धस॑म् । प॒दा । क्षुम्प॑म्ऽइव । स्फु॒र॒त् ॥ क॒दा । न॒: । शु॒श्र॒व॒त् । गिर॑: । इन्द्र॑: । अ॒ङ्ग ॥६३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा मर्तमराधसं पदा क्षुम्पमिव स्फुरत्। कदा नः शुश्रवद्गिर इन्द्रो अङ्ग ॥
स्वर रहित पद पाठकदा । मर्तम् । अराधसम् । पदा । क्षुम्पम्ऽइव । स्फुरत् ॥ कदा । न: । शुश्रवत् । गिर: । इन्द्र: । अङ्ग ॥६३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु-स्तवन व यज्ञ-साधन
पदार्थ -
१. हे (अङ्ग) = प्रिय! वे प्रभु (कदा) = न जाने कब, अर्थात् शीघ्र ही [In no time] (अराधसम्) = यज्ञ आदि कार्यों को सिद्ध न करनेवाले (मतम्) = पुरुष को इसप्रकार (स्फुरत्) = समास कर देते हैं उसका वध कर देते हैं (इव) = जैसेकि (पदा) = पैर से (क्षम्पम्) = खुम्ब को परे फेंक दिया जाता है। २. (कदा) = कब (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (नः गिर:) = हमारे स्तुतिवचनों को (शश्रवत) = सुनते हैं, अर्थात् कब हम प्रभु का स्तवन करनेवाले बनेंगे। वस्तुत: वही सौभाग्य का दिन होगा जबकि हम प्रभु-स्तवन करते हुए यज्ञ आदि उत्तम कर्मों को सिद्ध करनेवाले बनेंगे।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें और यज्ञ आदि उत्तम कमों को सिद्ध करने में लगे रहें।
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