अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्वर्णरम्। येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वे॒पय॑न्तम् । स्व॑:ऽतरम् ॥ येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम्। येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपयन्तम् । स्व:ऽतरम् ॥ येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥६३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 8
विषय - दशग्व-समुद्र
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित (येन) = जिस 'सोमपातम मद' से, हे प्रभो! आप (दशग्वम्) = दसवें दशक तक जानेवाले, अर्थात् सौ वर्ष के दीर्घजीवन को प्राप्त करनेवाले इस आराधक को (आविथ) = रक्षित करते हो (तम् ईमहे) = उस मद को हम आपसे माँगते हैं। सोम-रक्षण द्वारा उल्लासमय जीवनवाले होते हुए हम शतवर्ष जीवी बनें। २. हे प्रभो! हम उस सोमरक्षण-जनित मद को चाहते हैं जिससे कि आप (अध्रिगुम्) = अधृतगमनवाले मार्ग पर चलते समय वासनारूप विघ्नों से न रुक जानेवाले पुरुष को रक्षित करते हो। जिस मद से आप (वेपयन्तम्) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले को रक्षित करते हो और जिससे (स्वर्णरम्) = अपने को प्रकाश की ओर ले चलनेवाले पुरुष को रक्षित करते हो, उस मद को ही हम आपसे माँगते हैं। ३. हम उस मद को चाहते हैं (येन) = जिससे समुद्रम् [समुद्] आनन्दित रहनेवाले पुरुष को आप (आविथ) = रक्षित करते हैं। यह सोम-रक्षण उसे अन्नमयकोश में 'दशग्व' बनाता है, प्राणमयकोश में 'अध्रिगु', मनोमयकोश में 'वेपयन्', विज्ञानमयकोश में 'स्वर्णर' तथा आनन्दमयकोश में 'समुद्र' बनाता है। इसप्रकार बननेवाला व्यक्ति ही प्रभु का प्रिय होता है।
भावार्थ - सोमरक्षण-जनित मद हमें दीर्घजीवी, अधृतगमन-शत्रुओं को कम्पित करनेवाला, प्रकाश की ओर चलनेवाला व आनन्दमय मनोवृत्तिवाला बनाता है।
इस भाष्य को एडिट करें