अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 63/ मन्त्र 7
य इ॑न्द्र सोम॒पात॑मो॒ मदः॑ शविष्ठ॒ चेत॑ति। येना॒ हंसि॒ न्यत्त्रिणं॒ तमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठय: । इ॒न्द्र॒ । सो॒म॒ऽपात॑म: । मद॑: । श॒वि॒ष्ठ॒ । चेत॑ति ॥ येन॑ । हंसि॑ । नि । अ॒त्त्रिण॑म् । तम् । ई॒म॒हे॒॥६३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
य इन्द्र सोमपातमो मदः शविष्ठ चेतति। येना हंसि न्यत्त्रिणं तमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । इन्द्र । सोमऽपातम: । मद: । शविष्ठ । चेतति ॥ येन । हंसि । नि । अत्त्रिणम् । तम् । ईमहे॥६३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 7
विषय - "सोमपातमः' महः
पदार्थ -
१. हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् व क्रियाशील (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (यः) = जो (सोमपातम:) = अतिशयेन सोम का पान करनेवाला (मदः) = उल्लास (चेतति) = जाना जाता है, (तम्) = उसको (ईमहे) = हम आपसे मांगते हैं, अर्थात् हम यही चाहते हैं कि क्रियाशील व जितेन्द्रिय बनकर आपकी उपासना करते हुए सोम का रक्षण कर सकें और जीवन को उल्लासमय बना पाएँ। २. इस सोमरक्षण-जनित (तम्) = उस उल्लास को प्राप्त करें (येन) = जिससे कि आप (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाली इन वासनाओं को (निहंसि) = नष्ट कर देते हैं। सोम-रक्षण से शरीरस्थ रोगों के नाश की भांति मन की आधियों का भी विनाश होता है।
भावार्थ - हम सोम-रक्षण के द्वारा उल्लासमय जीवनवाले बनें। रोगों व वासनाओं का विनाश कर पाएँ।
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