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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
    ऋषिः - पर्वतः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६३
    36

    येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्वर्णरम्। येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दश॑ऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वे॒पय॑न्तम् । स्व॑:ऽतरम् ॥ येन॑ । स॒मु॒द्रम् । आवि॑थ । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥६३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना दशग्वमध्रिगुं वेपयन्तं स्वर्णरम्। येना समुद्रमाविथा तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । दशऽग्वम् । अध्रिऽगुम् । वेपयन्तम् । स्व:ऽतरम् ॥ येन । समुद्रम् । आविथ । तम् । ईमहे ॥६३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ७-९ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (येन) जिस [नियम] से (दशग्वम्) दस दिशाओं में जानेवाले, (अध्रिगुम्) बे-रोक गतिवाले, (वेपयन्तम्) [वैरियों को] कँपाते हुए, (स्वर्णरम्) सुख पहुँचानेवाले [वीर] को और (येन) जिस [नियम] से (समुद्रम्) समुद्र के समान [गम्भीर पुरुष] को (आविथ) तूने बचाया है, (तम्) उस [नियम] को (ईमहे) हम माँगते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो आनन्दस्वरूप जगदीश्वर पुरुषार्थियों को सदा सहाय देता है, उसीकी उपासना से पुरुषार्थ करके हम सुखी होवें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(येन) नियमेन (दशग्वम्) दश+गम्लृ गतौ-ड्वप्रत्ययः। दशदिक्षु गन्तारम् (अध्रिगुम्) अ० २०।३।१। अधृतगमनम्। अनिवारितगतिम् (वेपयन्तम्) शत्रून् कम्पयन्तम् (स्वर्णरम्) सुखस्य नेतारं प्रापयितारम् (येन) नियमेन (समुद्रम्) समुद्रमिव गम्भीरं पुरुषम् (आविथ) त्वं ररक्षिथ (तम्) नियमम् (ईमहे) याचामहे ॥

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    विषय

    दशग्व-समुद्र

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित (येन) = जिस 'सोमपातम मद' से, हे प्रभो! आप (दशग्वम्) = दसवें दशक तक जानेवाले, अर्थात् सौ वर्ष के दीर्घजीवन को प्राप्त करनेवाले इस आराधक को (आविथ) = रक्षित करते हो (तम् ईमहे) = उस मद को हम आपसे माँगते हैं। सोम-रक्षण द्वारा उल्लासमय जीवनवाले होते हुए हम शतवर्ष जीवी बनें। २. हे प्रभो! हम उस सोमरक्षण-जनित मद को चाहते हैं जिससे कि आप (अध्रिगुम्) = अधृतगमनवाले मार्ग पर चलते समय वासनारूप विघ्नों से न रुक जानेवाले पुरुष को रक्षित करते हो। जिस मद से आप (वेपयन्तम्) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले को रक्षित करते हो और जिससे (स्वर्णरम्) = अपने को प्रकाश की ओर ले चलनेवाले पुरुष को रक्षित करते हो, उस मद को ही हम आपसे माँगते हैं। ३. हम उस मद को चाहते हैं (येन) = जिससे समुद्रम् [समुद्] आनन्दित रहनेवाले पुरुष को आप (आविथ) = रक्षित करते हैं। यह सोम-रक्षण उसे अन्नमयकोश में 'दशग्व' बनाता है, प्राणमयकोश में 'अध्रिगु', मनोमयकोश में 'वेपयन्', विज्ञानमयकोश में 'स्वर्णर' तथा आनन्दमयकोश में 'समुद्र' बनाता है। इसप्रकार बननेवाला व्यक्ति ही प्रभु का प्रिय होता है।

    भावार्थ

    सोमरक्षण-जनित मद हमें दीर्घजीवी, अधृतगमन-शत्रुओं को कम्पित करनेवाला, प्रकाश की ओर चलनेवाला व आनन्दमय मनोवृत्तिवाला बनाता है।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (येन) यतः आप—(दशग्वम्) दस इन्द्रियोंवाले, परन्तु मोक्षमार्ग पर (अध्रिगुम्) अप्रतिहत प्रगतिवाले, (वेपयन्तम्) कर्मिष्ठ, और अतएव (स्वर्णरम्) स्वर्गीय-नर की (आविथ) रक्षा करते हैं, और (येन) यतः आप (समुद्रम्) हमारे हृदय-समुद्रों में (आविथ) प्रवेश पाये हुए हैं, इसलिए (तम्) उस आप को (ईमहे) हम प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    [दस इन्द्रियों पर विजय पाकर जो कर्मिष्ठ व्यक्ति मोक्ष मार्ग पर दृढ़तापूर्वक प्रगति करता रहता है, वह नर स्वर्गीय नर हो जाता है, और परमेश्वर उसकी रक्षा करता है। वेपः=कर्म (निघं০ २.१)। आविथ=अव (रक्षा तथा प्रवेश)। समुद्र, सिन्धु हृदय (अथर्व০ १०.२.११)।]

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    विषय

    राजा और ईश्वर।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (येन) जिस बल से तू (दशग्वम्) दश गमनशील प्राणों या इन्द्रियों से युक्त (अध्रिगुम्) अजितेन्द्रिय या ‘अध्रिगु’ = अस्थिरगति वाले नाशवान् शरीर को (वेपयन्तम्) सञ्चालित करने वाले (स्वर्नरम्) सुख के नेता या सुखमय प्रकाशमय, नर, पुरुष, आत्मा को (आविथ) रक्षा करता है और (येन) जिससे (समुद्रम्) इस महान् आकाश और समुद्र उनमें विद्यमान चराचर जगत् को (आविथ) रक्षा करता है हम तो (तम् ईमहे) उसको जानें, पावें, प्राप्त करें, उसकी याचना करते हैं। राजा के पक्ष में—दश दिशाओं में भाग जाने वाले अधीर शत्रुको कपाने में समर्थ (स्वर्नरम्) सुखमय राष्ट्र के नेता पुरुष और (समुद्रम्) प्रजा और विशाल सेना समूह रूप समुद्र को जिस बलसे रक्षा करता है राजन् ! हम उसी बल को चाहते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    That omnipotent passion and ecstasy of yours by which you protect and promote the individual soul working with ten faculties of perception and volition, the unchallengeable wind and electric energy, the solar radiation which shakes and vibrates, and the ocean of water on earth and in space, that we adore, that we pray for.

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    Translation

    O Lord, we ask you for that power through which you protect the man going freely in all directions, the man having surpassing movement, the man who makes the foemen tremble and who is the disseminator of light - (knowledge) and the luminous space.

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    Translation

    O Lord, we ask you for that power through which you protect the man going freely in all directions, the man having surpassing movement, the man who makes the foemen tremble and who is the disseminator of light (knowledge) and the luminous space.

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    Translation

    O Mighty Lord, we seek the same might and strength with which. Thou protectest the Sun, perpetually moving all the heavenly bodies without any obstruction in all the ten directions, all the intervening space and the oceans on the planets.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(येन) नियमेन (दशग्वम्) दश+गम्लृ गतौ-ड्वप्रत्ययः। दशदिक्षु गन्तारम् (अध्रिगुम्) अ० २०।३।१। अधृतगमनम्। अनिवारितगतिम् (वेपयन्तम्) शत्रून् कम्पयन्तम् (स्वर्णरम्) सुखस्य नेतारं प्रापयितारम् (येन) नियमेन (समुद्रम्) समुद्रमिव गम्भीरं पुरुषम् (आविथ) त्वं ररक्षिथ (तम्) नियमम् (ईमहे) याचामहे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ৭-৯ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (হে পরমাত্মন্ !] (যেন) যে [নিয়ম] দ্বারা (দশগ্বম্) দশ দিকে গতিময়/গতিশীল/গতিসম্পন্ন, (অধ্রিগুম্) অপ্রতিরোধ্য গতিযুক্ত, (বেপয়ন্তম্) [শত্রুদের] কম্পিত করে, (স্বর্ণরম্) সুখ প্রেরণকারী [বীর] কে এবং (যেন) যে [নিয়ম] দ্বারা (সমুদ্রম্) সমুদ্রের ন্যায় [গম্ভীর পুরুষ] কে (আবিথ) আপনি রক্ষা করেছেন, (তম্) সেই [নিয়ম] (ঈমহে) আমরা যাচনা করি ॥৮॥

    भावार्थ

    যে আনন্দস্বরূপ জগদীশ্বর পুরুষার্থীদের সদা সহায়তা প্রদান করেন, সেই পরমেশ্বরের উপাসনা দ্বারা পুরুষার্থ প্রাপ্ত করে আমরা সুখী হই ॥৮॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (যেন) যতঃ/যেহেতু আপনি—(দশগ্বম্) দশেন্দ্রিয়যুক্ত, কিন্তু মোক্ষমার্গে (অধ্রিগুম্) অপ্রতিহত প্রগতিশীল, (বেপয়ন্তম্) কর্মিষ্ঠ, অতএব (স্বর্ণরম্) স্বর্গীয়-নরের (আবিথ) রক্ষা করেন, এবং (যেন) যতঃ/যেহেতু আপনি (সমুদ্রম্) আমাদের হৃদয়-সমুদ্রে (আবিথ) প্রবিষ্ট/প্রবেশ প্রাপ্ত, এইজন্য (তম্) সেই আপনাকে (ঈমহে) আমরা প্রাপ্ত হই।

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