Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 63 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६३
    31

    यश्चि॒द्धि त्वा॑ ब॒हुभ्य॒ आ सु॒तावाँ॑ आ॒विवा॑सति। उ॒ग्रं तत्प॑त्यते॒ शव॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । चि॒त् । हि । त्वा॒ । ब॒हुऽभ्य॑: । आ । सु॒तऽवा॑न् । आ॒विवा॑सति । उ॒ग्रम् । तत् । प॒त्य॒ते॒ । शव॑: । इन्द्र॑: । अ॒ङ्ग ॥६३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्चिद्धि त्वा बहुभ्य आ सुतावाँ आविवासति। उग्रं तत्पत्यते शव इन्द्रो अङ्ग ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । चित् । हि । त्वा । बहुऽभ्य: । आ । सुतऽवान् । आविवासति । उग्रम् । तत् । पत्यते । शव: । इन्द्र: । अङ्ग ॥६३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    १-६ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्रजागण !] (बहुभ्यः) बहुतों में से (यः चित् हि) जो कोई भी (सुतवान्) तत्त्वरस-वाला [मनुष्य] (त्वा) तुझको (आ) निश्चय करके (आविवासति) भले प्रकार सेवा करता है, (तत) उसी से (अङ्ग) हे मित्र ! (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सभापति] (उग्रम्) भारी (श्रवः) बल (पत्यते) पाता है ॥६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रजा की सेवा करता है, वही बलवान् होकर ऐश्वर्य प्राप्त करता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यः चित्) यः कश्चित् (हि) एव (त्वा) त्वाम्। प्रजागणम् (बहुभ्यः) बहुमनुष्येभ्यः सकाशात् (आ) अवधारणे (सुतवान्) तत्त्वरसेन युक्तः (आविवासति) समन्तात् परिचरति (उग्रम्) प्रचण्डम् (तत्) तस्मात् कारणात् (पत्यते) प्राप्नोति (शवः) बलम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापतिः (अङ्ग) हे मित्र ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    बहुभ्यः सुतावान्

    पदार्थ

    १.हे (अङ्ग) = सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले प्रभो! [अगि गतौ] (य:) = जो (चित् हि) = भी निश्चय से (बहुभ्यः) = बहुतों के लिए (सुतावान्) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मोंवाला होता हुआ (त्वा) = आपका (आविवासति) = पूजन करता है, वह (तत्) = तब (उग्रं शव:) = तेजस्वी शत्रुविनाशक बल को (पत्यते) = प्राप्त होता है। "उन शव' को प्राप्त होनेवाला यह उपासक (इन्द्रः) = स्वयं इन्द्र हो जाता है। यह शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला इन्द्र बन जाता है।

    भावार्थ

    हम लोकहित के लिए यज्ञ आदि कर्म करते हुए प्रभु का पूजन करें और इसप्रकार तेजस्वी बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (बहुभ्यः) बहुत मनुष्यो में से (यः चित् हि) जो ही मनुष्य (सुतावान्) भक्तिरस से सम्पन्न होकर, हे परमेश्वर! (त्वा) आपकी (आ विवासति) पूर्णरूप से सेवा करता है, उसके लिए, (अङ्ग) हे प्रिय उपासक! (इन्द्रः) परमेश्वर (तत्) प्रसिद्ध (उग्रं शवः) प्रबल बल (आ पत्यते) प्रदान करता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा और ईश्वर।

    भावार्थ

    (अङ्ग) हे प्रजागण ! अथवा अन्तरात्मन् ! (यः चित् हि) जो भी (सुतावन्) सुत अर्थात् उत्पन्न पदार्थ या ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर (बहुभ्यः) बहुत से जनों के हित के लिये (त्वा) तेरी (आ विवासति) सेवा करता है। (तत्) तभी वह (इन्द्रः) स्वयं शत्रुनाशक होकर (उग्रम्) भयंकर (शवः) बल को (पत्यते) प्राप्त होता है, उसका स्वामी होजाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Dear friend, it is Indra, creator of energy, vitality and the joy of soma, who, for the sake of many, does special favours to you and makes you shine, and it is he, again, who controls violent force, that which could be anywhere.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O men, he who alone having prosperity serves you for many others, therewith becoming Indra, the master over organs by grace of Almighty one gains tremendous might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O men, he who alone having prosperity serves you for many others, therewith becoming Indra, the master over organs by grace of Almighty one gains tremendous might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O learned person, he, who, being equipped with earned wealth and fortune, spends it all around for the sake of many in His cause, the Mighty Lord of fortune invests him with irresistible power and might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यः चित्) यः कश्चित् (हि) एव (त्वा) त्वाम्। प्रजागणम् (बहुभ्यः) बहुमनुष्येभ्यः सकाशात् (आ) अवधारणे (सुतवान्) तत्त्वरसेन युक्तः (आविवासति) समन्तात् परिचरति (उग्रम्) प्रचण्डम् (तत्) तस्मात् कारणात् (पत्यते) प्राप्नोति (शवः) बलम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापतिः (अङ्ग) हे मित्र ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৬ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে প্রজাগণ !] (বহুভ্যঃ) অনেকের মধ্যে থেকে (যঃ চিৎ হি) যিনিই (সুতবান্) তত্ত্ববেত্তা [মনুষ্য] (ত্বা) তোমাকে (আ) নিশ্চিতরূপে (আবিবাসতি) উত্তমরূপে সেবা করে, (তত) তাঁর নিকট হতে (অঙ্গ) হে মিত্র ! (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান্ সভাপতি] (উগ্রম্) প্রচণ্ড (শ্রবঃ) বল (পত্যতে) প্রাপ্ত করে ॥৬॥

    भावार्थ

    যে মানুষ প্রজার সেবা করেন, তিনিই বলবান্ হয়ে ঐশ্বর্য প্রাপ্ত করেন ॥৬॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (বহুভ্যঃ) বহু মানুষের মধ্যে (যঃ চিৎ হি) যে ই মনুষ্য (সুতাবান্) ভক্তিরস দ্বারা সম্পন্ন হয়ে, হে পরমেশ্বর! (ত্বা) আপনার (আ বিবাসতি) পূর্ণরূপে সেবা করে, তাঁর জন্য, (অঙ্গ) হে প্রিয় উপাসক! (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (তৎ) প্রসিদ্ধ (উগ্রং শবঃ) প্রবল বল (আ পত্যতে) প্রদান করেন।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top