अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
इन्द्र॑ स्थातर्हरीणां॒ नकि॑ष्टे पू॒र्व्यस्तु॑तिम्। उदा॑नंश॒ शव॑सा॒ न भ॒न्दना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । स्था॒त॒: । ह॒री॒णा॒म् । नकि॑: । ते॒ । पू॒र्व्यऽस्तु॑तिम् ॥ उत् । आ॒नं॒श॒ । शव॑सा । न । भ॒न्दना॑ ॥६४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां नकिष्टे पूर्व्यस्तुतिम्। उदानंश शवसा न भन्दना ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । स्थात: । हरीणाम् । नकि: । ते । पूर्व्यऽस्तुतिम् ॥ उत् । आनंश । शवसा । न । भन्दना ॥६४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
विषय - न शवसा, न भन्दना
पदार्थ -
१. हे (हरीणां स्थात:) = इन्द्रियाश्वों के अधिष्ठातृभूत (इन्द्र) -=परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ते आपकी (पूर्व्यस्तुतिम्) = पालन व पूरण करनेवाली बातों में सर्वोत्तम इस स्तुति को (नकिः उदानंश) = कोई भी अतिव्याप्त नहीं कर पाता–कोई भी व्यक्ति आपकी स्तुति का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं होता। २. (न शवसा) = कोई भी बल से आपको अतिक्रान्त नहीं कर सकता। (न भन्दना) = कोई भी कल्याण व सुख से आपका उल्लंघन करनेवाला नहीं है। आप अनन्तशक्ति-सम्पन्न व आनन्दस्वरूप हैं। आपके उपासक में भी इस शक्ति व आनन्द की संक्रान्ति होती है।
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करते हैं। यह स्तवन हमारी न्यूनताओं को दूर करता है। स्तवन से हमारे अन्दर शक्ति व आनन्द का संचार होता है।
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