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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्। अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒हि । इन्द्र॑म् । व्य॒श्व॒ऽवत् । अनू॑र्मिम् । वा॒जिन॑म् । यम॑म् ॥ अ॒र्य: । गय॑म् । मंह॑मानम् । वि । दा॒शुषे॑ ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिं वाजिनं यमम्। अर्यो गयं मंहमानं वि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुहि । इन्द्रम् । व्यश्वऽवत् । अनूर्मिम् । वाजिनम् । यमम् ॥ अर्य: । गयम् । मंहमानम् । वि । दाशुषे ॥६६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
विषय - 'अनूमि, वाजी, यम' प्रभु का स्तवन
पदार्थ -
१. (व्यश्ववत्) = व्यश्व की भांति-उत्तम इन्द्रियोंवाले पुरुष की भांति तू (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिशाली प्रभु का (स्तुहि) = स्तवन कर, जोकि (अनूमिम्) = [ऊर्मि-A human infimity] शोक, मोह, जरा, मृत्यु व क्षुत्-पिपासारूप ऊर्मियों से रहित हैं 'शोकमोही जरामृत्यू क्षुत्पिपासे षडूर्मयः'। उस प्रभु में शोक-मोह आदि किसी भी दुर्बलता का निवास नहीं, अतएव (वाजिनम्) = वे प्रभु शक्तिशाली हैं और (यमम्) = सर्वनियन्ता है। प्रभु का स्तोता भी दुर्बलताओं से ऊपर उठता है, शक्तिशाली बनता है और संयम की वृत्तिवाला होता है। २. उस प्रभु का हम स्तवन करें जोकि (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिए (अर्य:) = काम, क्रोध, लोभरूप शत्रुओं के (गयम्) = गृह को (विमंहमानम) = विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं। 'काम' ने आज तक इन्द्रियों में अपना निवास बनाया हुआ था, 'क्रोध'ने मन को अपनाया हुआ था और 'लोभ' ने बुद्धि पर अधिकार किया हुआ था। प्रभु इन सबको दूर करके यह शरीर-गृह दाश्वान् को प्राप्त कराते हैं। उपासक के जीवन में काम, क्रोध, लोभ का निवास नहीं रहता।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन से हम शोक-मोह आदि से ऊपर उठते हैं। शक्तिशाली व संयमी बनते हैं। हमारा शरीर काम, क्रोध, लोभ का घर नहीं बना रहता।
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