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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
वेत्था॒ हि निरृ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म्। अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठवेत्थ॑ । हि । नि:ऽऋ॑तीनाम् । वज्र॑ऽहस्त । प॒रि॒ऽवृज॑म् ॥ अह॑:ऽअह: । शु॒न्ध्यु: । प॒रि॒पदा॑म्ऽइव ॥६६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्था हि निरृतीनां वज्रहस्त परिवृजम्। अहरहः शुन्ध्युः परिपदामिव ॥
स्वर रहित पद पाठवेत्थ । हि । नि:ऽऋतीनाम् । वज्रऽहस्त । परिऽवृजम् ॥ अह:ऽअह: । शुन्ध्यु: । परिपदाम्ऽइव ॥६६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 3
विषय - निर्ऋति परिवर्जन
पदार्थ -
१. हे (वज्रहस्त) = व्रज को हाथ में लिये हुए प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (नि्र्ऋतीनाम्) = उपद्रवकारी राक्षसीभावों के (परिवृजम्) = परिवर्जन को-हमसे पृथक् करने को (वेत्थ) = जानते हैं। आपका स्मरण व स्तवन होते ही हमारे हृदयों को राक्षसीभाव छोड़कर चले जाते हैं। २. आप राक्षसीभावों के परिवर्जन को इसी प्रकार जानते हैं, इव-जिस प्रकार (शन्यः) = सब अन्धकार का शोधन कर देनेवाला सूर्य (आहरहः) = प्रतिदिन (परिपदाम्) = आहार के लिए चारों ओर गतिवाले पशु-पक्षियों के स्वस्थान परिवर्जन को जानता है। सूर्योदय होते ही सब पक्षी घोंसलों को छोड़कर इधर-उधर निकल जाते हैं। इसी प्रकार प्रभु-स्मरण होते ही राक्षसीभाव हृदयों को छोड़ जाते हैं।
भावार्थ - प्रभु-स्मरण राक्षसीभावों को दूर भगा देता है। इनको दूर रखने के लिए दिन रात प्रभु-स्मरण आवश्यक है। सूर्यास्त होने पर पक्षी जैसे घोंसलों में लौट आते हैं, इसी प्रकार प्रभु-विस्मरण होते ही राक्षसीभावों के लौट आने की आशङ्का होती है। निर्ऋति परिवर्जन करता हुआ यह व्यक्ति 'परुत्' बनता है-पालन व पूरण करनेवाला। इसप्रकार जीवन का सुन्दर निर्माण करनेवाला यह 'शेप' कहलाता है। यह 'परुच्छेप' अगले सूक्त के प्रथम तीन मन्त्रों का ऋषि है। चार से सात तक ऋषि 'गृत्समद' है [गृणाति माद्यति] = प्रभु-स्तवन करता है व आनन्द में रहता है -
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