अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
व॒नोति॒ हि सु॒न्वन्क्षयं॒ परी॑णसः सुन्वा॒नो हि ष्मा॒ यज॒त्यव॒ द्विषो॑ दे॒वाना॒मव॒ द्विषः॑। सु॑न्वा॒न इत्सि॑षासति स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः। सु॑न्वा॒नायेन्द्रो॑ ददात्या॒भुवं॑ र॒यिं द॑दात्या॒भुव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठव॒नोति॑ । हि । सु॒न्वन् । क्षय॑म् । परी॑णस: । सु॒न्वा॒न: । हि । स्म॒ । यज॑ति । अव॑ । द्विष॑: । दे॒वाना॑म् । अव॑ । द्विष॑: । सु॒न्वा॒न: । इत् । सि॒सा॒स॒ति॒ । स॒हस्रा॑ । वा॒जी । अवृ॑त: ॥ सु॒न्वा॒नाय॑ । इन्द्र॑: । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् । र॒यिम् । द॒दा॒ति॒ । आ॒ऽभुव॑म् ॥६७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वनोति हि सुन्वन्क्षयं परीणसः सुन्वानो हि ष्मा यजत्यव द्विषो देवानामव द्विषः। सुन्वान इत्सिषासति सहस्रा वाज्यवृतः। सुन्वानायेन्द्रो ददात्याभुवं रयिं ददात्याभुवम् ॥
स्वर रहित पद पाठवनोति । हि । सुन्वन् । क्षयम् । परीणस: । सुन्वान: । हि । स्म । यजति । अव । द्विष: । देवानाम् । अव । द्विष: । सुन्वान: । इत् । सिसासति । सहस्रा । वाजी । अवृत: ॥ सुन्वानाय । इन्द्र: । ददाति । आऽभुवम् । रयिम् । ददाति । आऽभुवम् ॥६७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
विषय - 'सुन्वन्' का सुन्दर जीवन
पदार्थ -
१.(सुन्वन्) = अपने शरीर में सोमरस [वीर्य] का अभिषव करनेवाला व्यक्ति (हि) = निश्चय से (क्षयम्) = [क्षि निवासगत्योः] उत्तम निवास व गतिवाले शरीररूप गृह को वनोति-प्राप्त करता है [Wins] | इस सोम के रक्षण से शरीर की शक्तियाँ बनी रहती हैं और क्रियाशीलता में कमी नहीं आती। (सुन्वान:) = सोम का अभिषव करनेवाला यह (हि) = निश्चय से (परीणसः) [परितो नद्धान् सा०] = चारों ओर से बाँधनेवाले-हमपर आक्रमण करनेवाले (द्विषः) = द्वेष आदि शत्रुओं को (अवयजाति) = दूर करता है। (देवानां द्विषः) = दिव्य भावनाओं के दुश्मनों को-दिव्य भावनाओं की विरोधी आसुरभावनाओं को (अव) = अपने से दूर करता है। रोगरक्षण से द्वेष आदि आसुरभावनाएँ दूर होकर मानस पवित्रता का लाभ होता है। २. (सुन्वानः इत्) = सोम का अभिषव करता हुआ ही (वाजी) = शक्तिशाली बनता है, (अवृतः) = द्वेष आदि शत्रुओं से घेरा नहीं जाता और (सहस्त्रा) = शतश: धनों को (सिषासति) = संभक्त करना चाहता है, अर्थात् यह सुन्वान शतशः धनों को प्राप्त करके उन्हें देने की वृत्तिवाला होता है। ३. (सुन्वानाय) = सोमाभिषव करनेवाले पुरुष के लिए ही (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (आभुवम्) = सर्वतो व्यास, अर्थात् अत्यन्त प्रवृद्ध (रयिम्) = धन को (ददाति) = देता है। उस धन को (ददाति) = देता है जोकि (आभुवम्) = समन्तात् भवनशील होता है, अर्थात् सब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त होता है।
भावार्थ - शरीर में सोम के रक्षण से [क] हमारा शरीररूप गृह उत्तम बनता है [ख] हम यज्ञ से आसुरभावों को दूर कर पाते हैं [ग] शक्तिशाली बनकर शतश: धनों को प्राप्त करते हैं [घ] उन धनों को प्राप्त करते हैं जो हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाले होते हैं।
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