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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 67

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 6
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-६७

    ए॒ष स्य ते॑ त॒न्वो नृम्ण॒वर्ध॑नः॒ सह॒ ओजः॑ प्र॒दिवि॑ बा॒ह्वोर्हि॒तः। तुभ्यं॑ सु॒तो म॑घव॒न्तुभ्य॒माभृ॑त॒स्त्वम॑स्य॒ ब्राह्म॑णा॒दा तृ॒पत्पि॑ब ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ष: । स्य । ते॒ । त॒न्व॑: । नृ॒म्ण॒ऽवर्ध॑न: । सह॑:। ओज॑: । प्र॒दिवि॑ । बा॒ह्वो: । हि॒त: ॥ तुभ्य॑म् । सु॒त: । म॒घ॒ऽव॒न् । तुभ्य॑म् । आऽभृ॑त: । त्वम् । अ॒स्य॒ । ब्राह्म॑णात् । आ । तृ॒पत् । पि॒ब॒ ॥६७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष स्य ते तन्वो नृम्णवर्धनः सह ओजः प्रदिवि बाह्वोर्हितः। तुभ्यं सुतो मघवन्तुभ्यमाभृतस्त्वमस्य ब्राह्मणादा तृपत्पिब ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एष: । स्य । ते । तन्व: । नृम्णऽवर्धन: । सह:। ओज: । प्रदिवि । बाह्वो: । हित: ॥ तुभ्यम् । सुत: । मघऽवन् । तुभ्यम् । आऽभृत: । त्वम् । अस्य । ब्राह्मणात् । आ । तृपत् । पिब ॥६७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (एषः स्य:) = ये जो गतमन्त्रों में वर्णित सोम (ते तन्व:) = तेरे शरीर के (नृम्णवर्धन:) = बल का वर्धन करनेवाला है, इसके द्वारा (प्रदिवि) = प्रकृष्ट ज्ञान होने पर (सहः) = शत्रुमर्षक बल तथा (ओजः) = इन्द्रियशक्तियों का वर्धक बल (बाह्रो:) = तेरी भुजाओं में हितः स्थापित होता है। २. (तुभ्यं सुतः) = तेरे लिए इस सोम को उत्पन्न किया गया है। हे (मघवन) = यज्ञशील पुरुष! (तुभ्यम्) = तेरे हित के लिए (आभूत:) = यह शरीर में समन्तात् भूत हुआ है। (त्वम्) = तू (ब्राह्मणात) = ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के हेतु से (आतृपत्पिब) = खूब तृप्त होता हुआ इसे पी। इसे तू अपने अन्दर ही व्याप्त करनेवाला बन।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित हुआ सोम बल व सुख को बढ़ानेवाला है। यह रोगकृमिरूप शत्रुओं को कुचलनेवाला है। इन्द्रियशक्तियों का वर्धक है। अन्ततः यह ब्रह्म-प्रासि का साधन बनता है।

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