अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
मो षु वो॑ अ॒स्मद॒भि तानि॒ पौंस्या॒ सना॑ भूवन्द्यु॒म्नानि॒ मोत जा॑रिषुर॒स्मत्पु॒रोत जा॑रिषुः। यद्व॑श्चि॒त्रं यु॒गेयु॑गे॒ नव्यं॒ घोषा॒दम॑र्त्यम्। अ॒स्मासु॒ तन्म॑रुतो॒ यच्च॑ दु॒ष्टरं॑ दिधृ॒ता यच्च॑ दु॒ष्टर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठमो इति॑ । सु । व॒: । अ॒स्मत् । अ॒भि । तानि॑ । पौंस्या॑ । सना॑ । भू॒व॒न् । द्यु॒म्नानि॑ । आ । उ॒त । जा॒रि॒षु॒: । अ॒स्मत् । पु॒रा । उ॒त । जा॒रि॒षु॒: ॥ यत् । व॒: । चि॒त्रम् । यु॒गेऽयु॑गे । नव्य॑म् । घोषा॑त् । अम॑र्त्यम् ॥ अ॒स्मासु॑ । तत् । म॒रु॒त॒: । यत् । च॒ । दु॒स्तर॑म् । दि॒धृत । यत् । च॒ । दु॒स्तर॑म् ॥६७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मो षु वो अस्मदभि तानि पौंस्या सना भूवन्द्युम्नानि मोत जारिषुरस्मत्पुरोत जारिषुः। यद्वश्चित्रं युगेयुगे नव्यं घोषादमर्त्यम्। अस्मासु तन्मरुतो यच्च दुष्टरं दिधृता यच्च दुष्टरम् ॥
स्वर रहित पद पाठमो इति । सु । व: । अस्मत् । अभि । तानि । पौंस्या । सना । भूवन् । द्युम्नानि । आ । उत । जारिषु: । अस्मत् । पुरा । उत । जारिषु: ॥ यत् । व: । चित्रम् । युगेऽयुगे । नव्यम् । घोषात् । अमर्त्यम् ॥ अस्मासु । तत् । मरुत: । यत् । च । दुस्तरम् । दिधृत । यत् । च । दुस्तरम् ॥६७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 2
विषय - 'चित्त-नव्य-अमर्त्य' सोमरूप धन
पदार्थ -
१. हे (मरुत्त:) = प्राणो! (व:) = आपके-आपकी साधना से उत्पन्न होनेवाले (तानि) = वे प्रसिद्ध (सना) = संभजनीय-सेवनीय-(पौंस्या) = बल (अस्मत्) = हमसे (उ) = निश्चयपूर्वक (मा सु अभिभूवन्) = [अपगतानि मा भूवन् सा०] मत ही अलग हों। (उत) = और (द्युम्नानि) = ज्ञान की ज्योतियों (मा जारिष:) = क्षीण न हों। (उत) = और (अस्मत्) = हमारी (पुरा) = ये शरीररूप नगरियाँ (मा जारिष:) = जीर्ण न हो जाएँ। एवं, प्राणसाधना से [क] शक्ति प्राप्त होती है [ख] ज्ञानज्योति बढ़ती है [ग] शरीर स्वस्थ होता है। २. हे मरुतो। (यत्) = जो (व:) = आपका (चित्रम्) = अद्भुत (युगे-युगे) = जीवन के प्रत्येक काल में-बाल्य, यौवन व वार्धक्य में-(नव्यम्) = स्तुति के योग्य धन है, जो धन (अमर्त्य घोषात्) = मनुष्य की अमर्त्यता की घोषणा करता है (तत्) = उस धन को (अस्मासु) = हममें (दिधृता) = धारण कीजिए (च) = और उस धन को धारण कीजिए (यत्) = जो (दुष्टरम्) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं है (यत् च) = और जो सचमुच (दुष्टरम्) = शत्रुओं से तैरने योग्य नहीं। मरुतों का यह धन सोम ही है। प्राणसाधना से इस सोम का शरीर में रक्षण होता है। रक्षित सोमरूप धन [चित्रम्-]अद्भुत है। यह जीवन के प्रत्येक अन्तर [Period] में स्तुत्य परिणामों को पैदा करता है [नव्यम्]। यह हमें अमर्त्य बना देता है-रोगों का शिकार नहीं होने देता। रोगकृमिरूप शत्रुओं से यह सोम दुष्टर होता है।
भावार्थ - प्राणसाधना से हमें शक्ति प्राप्त होती है, हमारी ज्ञानज्योति बढ़ती है, शरीर क्षीण नहीं होते। इस साधना से सोम-रक्षण द्वारा 'अद्भुत' स्तुत्य-पूर्ण जीवन को प्राप्त करानेवाला दुष्टर बल प्राप्त होता है।
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