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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 67

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
    सूक्त - परुच्छेपः देवता - अग्निः छन्दः - अत्यष्टिः सूक्तम् - सूक्त-६७

    अ॒ग्निं होता॑रं मन्ये॒ दास्व॑न्तं॒ वसुं॑ सू॒नुं सह॑सो जा॒तवे॑दसं॒ विप्रं॒ न जा॒तवे॑दसम्। य ऊ॒र्ध्वया॑ स्वध्व॒रो दे॒वो दे॒वाच्या॑ कृ॒पा। घृ॒तस्य॒ विभ्रा॑ष्टि॒मनु॑ वष्टि शो॒चिषा॒ जुह्वा॑नस्य स॒र्पिषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । होता॑रम् । म॒न्ये॒ । दास्व॑न्तम् । वसु॑म् । सू॒नुम् । सह॑स: । जा॒तऽवे॑दसम् । विप्र॑म् । न । जा॒तऽवे॑दसम् ॥ य: । ऊ॒र्ध्वया॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒र: । दे॒व: । दे॒वाच्या॑ । कृ॒पा ॥ घृतस्य॑ । विऽभ्रा॑ष्टिम् । अनु॑ । व॒ष्टि॒ । शो॒चिषा॑ । आ॒जुह्वा॑नस्य । स॒र्पिष: ॥६७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्। य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा। घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषा जुह्वानस्य सर्पिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । होतारम् । मन्ये । दास्वन्तम् । वसुम् । सूनुम् । सहस: । जातऽवेदसम् । विप्रम् । न । जातऽवेदसम् ॥ य: । ऊर्ध्वया । सुऽअध्वर: । देव: । देवाच्या । कृपा ॥ घृतस्य । विऽभ्राष्टिम् । अनु । वष्टि । शोचिषा । आजुह्वानस्य । सर्पिष: ॥६७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. मैं (अग्निम्) = उस सर्वाग्रणी-हमारी अग्रगति के साधक प्रभु का (मन्ये) = मनन व विचार करता हूँ जो प्रभु (होतारम्) = सृष्टियन के महान् होता है, (दास्वन्तम्) = सब-कुछ देनेवाले हैं, (वसुम्) = निवास के लिए आवश्यक सब धनों को प्राप्त कराके हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हैं, (सहसः सूनुम्) = बल के पुत्र-शक्ति के पुज्ज हैं तथा (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ हैं। वे प्रभु (विप्रं न) = जैसा हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं, उसी प्रकार (जातवेदसम्) = [जाते जाते विद्यते] हम सबके अन्दर विद्यमान हैं। अन्त:स्थित होते हुए वे हमारा पूरण कर रहे है। २. प्रभु वे हैं (यः) = जो (स्वध्वरः) = उत्तम अहिंसात्मक यज्ञोंवाले (देव:) = प्रकाशमय होते हुए (ऊर्ध्वया) = अत्यन्त उन्नत (देवाच्या) = [देवान् अञ्चति]-देवों को प्राप्त होनेवाले कृपा-सामर्थ्य से हमारे जीवनों में घृतस्य ज्ञानदीति की (विभ्राष्टिम् अनु) = ज्योति के बाद (शोचिषा) = मन की शुद्धता के साथ (आजुह्वानस्य सर्पिष:) = आहुति दिये जाते हुए घृत की (वष्टिम्) = कामना करते हैं। प्रभु हमारे जीवनों में तीन बातें चाहते हैं [क] ज्ञान की दीप्ति [ख] हृदय की पवित्रता [ग] हाथों से यज्ञों का प्रवर्तन।

    भावार्थ - प्रभु 'अग्नि-होता-दास्वान्-सहसः सून व जातवेदा:' हैं; उनसे सामर्थ्य प्राप्त करके हम मस्तिष्क में ज्ञानदीप्तिवाले, हृदय में पवित्रतावाले तथा हाथों में यज्ञोंवाले बनें।

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