अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
य॒ज्ञैः संमि॑श्लाः॒ पृष॑तीभिरृ॒ष्टिभि॒र्यामं॑ छु॒भ्रासो॑ अ॒ञ्जिषु॑ प्रि॒या उ॒त। आ॒सद्या॑ ब॒र्हिर्भ॑रतस्य सूनवः पो॒त्रादा सोमं॑ पिबता दिवो नरः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञै: । सम्ऽमि॑श्ला: । पृष॑तीभि: । ऋ॒ष्टिऽभि॑: । याम॑न् । शु॒भ्रास॑: । अ॒ञ्जिषु॑ । प्रि॒या: । उ॒त ॥ आ॒ऽसद्य॑ । ब॒र्हि: । भ॒र॒त॒स्य॒ । सू॒न॒व॒: । पो॒त्रात् । आ । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒ । दि॒व॒: । न॒र॒: ॥६७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञैः संमिश्लाः पृषतीभिरृष्टिभिर्यामं छुभ्रासो अञ्जिषु प्रिया उत। आसद्या बर्हिर्भरतस्य सूनवः पोत्रादा सोमं पिबता दिवो नरः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञै: । सम्ऽमिश्ला: । पृषतीभि: । ऋष्टिऽभि: । यामन् । शुभ्रास: । अञ्जिषु । प्रिया: । उत ॥ आऽसद्य । बर्हि: । भरतस्य । सूनव: । पोत्रात् । आ । सोमम् । पिबत । दिव: । नर: ॥६७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
विषय - भरतस्य सूनवः
पदार्थ -
१. (नरः) = अपने को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले मनुष्यो! (बर्हिः आसद्य) = वासनाशून्य हृदय में आसीन होकर आप (दिवः) = ज्ञान-प्रकाश के हेतु से तथा (पोत्रात्) = पोतृकर्म के हेतु से-अपने जीवन को पवित्र बनाने के दृष्टिकोण से (सोमम् आपिबत) = सोम [वीर्य] का अपने अन्दर ही पान करो। इसप्रकार तुम (भरतस्य सूनवः) = भरत के पुत्र बनो-अपना भरण बड़ी उत्तमता से करनेवाले बनो। २. (यज्ञैः संमिश्ला:) = ये सोमपान करनेवाले यज्ञों से युक्त होते हैं-इनका जीवन यज्ञमय बनता है। ये लोग (यामम्) = इस जीवन-यात्रा के मार्ग में (पृषतीभिः) = [पृष् सेचने]-जिनका शक्ति से सेचन किया गया है, ऐसे (ऋष्टिभिः) = आयुधों से-इन्द्रियों, मन व बुद्धिरूप साधनों से (शास:) = उज्ज्वल जीवनवाले होते हैं। इनकी इन्द्रिय, मन व बुद्धि सभी चमकते हैं (उत) = और ये सोमरक्षक पुरुष (अजिषु) = आभरणों में (प्रिया) = बड़े प्रिय लगते हैं। स्वास्थ्य, निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता ही इनके आभरण होते हैं। इन आभरणों से इनकी शोभा बढ़ जाती है।
भावार्थ - ज्ञान व पवित्रता के उद्देश्य से हम सोम का रक्षण करें। इससे हमारा जीवन यज्ञमय, प्रकाशमय व शक्ति-सम्पन्न होगा।
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