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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
ए॒वा नू॒नमुप॑ स्तुहि॒ वैय॑श्व दश॒मं नव॑म्। सुवि॑द्वांसं च॒र्कृत्यं॑ च॒रणी॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । नू॒नम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । वैय॑श्व । द॒श॒मम् । नव॑म् ॥ सुऽवि॑द्वांसम् । च॒र्कृत्य॑म् । च॒रणी॑नाम् ॥६६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा नूनमुप स्तुहि वैयश्व दशमं नवम्। सुविद्वांसं चर्कृत्यं चरणीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठएव । नूनम् । उप । स्तुहि । वैयश्व । दशमम् । नवम् ॥ सुऽविद्वांसम् । चर्कृत्यम् । चरणीनाम् ॥६६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
विषय - दशमं नवम्
पदार्थ -
१. (एवा) = गतिशीलता के द्वारा कर्तव्यकर्मों को करने के द्वारा हे (वैयश्व) = उत्तम इन्द्रियाश्यों वाले स्तोता! तू (नूनम्) = निश्चय से (उपस्तुहि) = उस प्रभु का स्तवन कर जोकि (दशमम्) = [दश्यन्ते शत्रवः अनेन]-हमारे शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले हैं और अतएव (नवम्) = [नु स्तुतौ] स्तुति के योग्य हैं। २. उस प्रभु का स्तवन कर जोकि (सुविद्वांसम्) = उत्तम ज्ञानी हैं और (चरणीनाम्) = कर्तव्य-कर्मों के करने में तत्पर मनुष्यों के (चर्कत्यम्) = फिर-फिर नमस्कार करने योग्य हैं। वस्तुत: यह प्रभु-नमस्कार ही उन्हें 'चरणि' बनाता है। प्रभु-नमस्कार से शक्ति-सम्पन्न बनकर वे कर्तव्यकर्म कर पाते हैं।
भावार्थ - हम 'दशम-नव-सुविद्वान-नमस्करणीय' प्रभु का स्तवन करते हुए उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले व शक्ति-सम्पन्न बनकर कर्तव्यकर्म करने में तत्पर रहें।
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