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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑। बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व: । द्वाभ्या॑म् । प॒र: । एक॑या । गा: । गुहा॑ । तिष्ठ॑न्ती: । अनृ॑तस्य । सेतौ॑ । बृह॒स्पति॑: । तम॑सि । ज्योति॑: । इ॒च्छन् । उत् । उ॒स्रा: । आ । अ॒क॒: । वि । हि । ति॒स्र: । आव॒रित्याथ॑: ॥९१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवो द्वाभ्यां पर एकया गा गुहा तिष्ठन्तीरनृतस्य सेतौ। बृहस्पतिस्तमसि ज्योतिरिच्छन्नुदुस्रा आकर्वि हि तिस्र आवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव: । द्वाभ्याम् । पर: । एकया । गा: । गुहा । तिष्ठन्ती: । अनृतस्य । सेतौ । बृहस्पति: । तमसि । ज्योति: । इच्छन् । उत् । उस्रा: । आ । अक: । वि । हि । तिस्र: । आवरित्याथ: ॥९१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (बृहस्पति:) = ज्ञान का पति यह विद्वान् (द्वाभ्याम् अव उ) = काम, क्रोधरूप दोनों शत्रुओं से दूर ही रहता है। काम, क्रोध से दूर होकर (एकया) = अद्वितीय वेदवाणी से यह (पर:) = उत्कृष्ट जीवनवाला बनता है। २. ज्ञान-प्राति से पूर्व (गुहा तिष्ठन्ती:) = अज्ञानान्काररूप गुहा में ठहरी हुई और अतएव (अन्तस्य सेतौ) [तिष्ठन्ती:] = अन्त के बन्धन में पड़ी हुई (गा:) = इन्द्रियों को (उद् आव:) = अज्ञानान्धकार से बाहर करता है। ज्ञान प्राप्त करने पर इसकी इन्द्रियाँ विषयों में ही नहीं फंसी रहती। २. (बृहस्पति:) = यह ज्ञान की वाणी का पति बनता है। (तमसि) = इस संसार के विषयान्धकार में (ज्योतिः इच्छन्) = यहाँ आत्मप्रकाश की प्राप्ति की इच्छा करता है। इसी उद्देश्य से (उस्त्रा:) = ज्ञान की किरणों को [उद् आव:] अपने जीवन में प्रमुख स्थान प्राप्त कराता है। ज्ञानविरोधी किसी भी व्यवहार को यह नहीं करता। इसप्रकार (हि) = निश्चय से (तिस्त्र:) = तीनों ज्योतियों को (वि आव:) = विशेषरूप से प्रकट करता है। 'त्रीणि ज्योतींषि सचेत स षोडशी' इस मन्त्रभाग में इन्हीं तीन ज्योतियों का संकेत है। शरीर में ये ज्योतियौं तेजस्विता [अग्नि], आहाद [चन्द्र] व ज्ञान [सूर्य] के रूप में हैं। यह बृहस्पति शरीर में तेजस्वितावाला होता है, मन में आहादमय तथा मस्तिष्क में ज्ञानरूप सूर्यवाला होता है।

    भावार्थ - हम काम, क्रोध से दूर हो, वेदवाणी के द्वारा उत्कृष्ट जीवनवाले बनें तथा 'तेजस्विता, आहाद व ज्ञान' रूप ज्योतियों को अपने में जगाएँ।

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