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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 11
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    स॒त्यमा॒शिषं॑ कृणुता वयो॒धै की॒रिं चि॒द्ध्यव॑थ॒ स्वेभि॒रेवैः॑। प॒श्चा मृधो॒ अप॑ भवन्तु॒ विश्वा॒स्तद्रो॑दसी शृणुतं विश्वमि॒न्वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्याम् । आ॒ऽशिषम् । कृ॒णु॒त॒ । व॒य॒:ऽधै । की॒रिम् । चि॒त् । हि । अव॑थ । स्वेभि॑: । एवै॑: ॥ प॒श्चा । मृध॑: । अप॑ । भ॒व॒न्तु॒ । विश्वा॑: । तत् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । शृ॒णु॒त॒म् । वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे ॥९१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यमाशिषं कृणुता वयोधै कीरिं चिद्ध्यवथ स्वेभिरेवैः। पश्चा मृधो अप भवन्तु विश्वास्तद्रोदसी शृणुतं विश्वमिन्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्याम् । आऽशिषम् । कृणुत । वय:ऽधै । कीरिम् । चित् । हि । अवथ । स्वेभि: । एवै: ॥ पश्चा । मृध: । अप । भवन्तु । विश्वा: । तत् । रोदसी इति । शृणुतम् । विश्वमिन्वे इति विश्वम्ऽइन्वे ॥९१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. हे देवो! (वयोधै) = उत्तम जीवन के धारण व स्थापन के लिए (आशिषम्) = इच्छाओं को (सत्याम्) = सत्य (कृणुत) = करो। इच्छाएँ सत्य होगी तो जीवन भी उत्तम बनेगा। २. (कीरिम्) = इस स्तोता को (चित् हि) = निश्चय से (स्वेभिः एवैः) = अपने कर्मों के द्वारा (अवथ) = रक्षित करते हो। यह स्तोता क्रियाशील बनता है और इसके ये कर्म इसके रक्षण का साधन बनते हैं। ३. (पश्चा) = अब इस क्रियाशीलता के होने पर-क्रियाशीलता के पीछे (विश्वा:) = सब (मृधः) = काम, क्रोध, लोभ आदि (शव अपभवन्तु) = हमसे दूर हों। हम काम-क्रोध आदि के शिकार न हों। (तत्) = हमारी इस प्रार्थना को (विश्वमिन्वे) = सब संसार को प्रीणित करनेवाले (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (शृणुतम्) = सुनें। हमारी इस प्रार्थना को क्रियान्वित करने के लिए सारा संसार अनुकूल हो।

    भावार्थ - हमारी इच्छाएँ सत्य हों। हम स्तोताओं का कर्मों के द्वारा रक्षण हो। काम, क्रोध व लोभ हमसे दूर हों। हमारी यह कामना सम्पूर्ण संसार की अनुकूलता द्वारा पूर्ण हो।

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