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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    वि॒भिद्या॒ पुरं॑ श॒यथे॒मपा॑चीं॒ निस्त्रीणि॑ सा॒कमु॑द॒धेर॑कृन्तत्। बृह॒स्पति॑रु॒षसं॒ सूर्यं॒ गाम॒र्कं वि॑वेद स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभिद्य॑: । पुर॑म् । श॒यथा॑ । ई॒म् । अपा॑चीम् । नि: । त्रीणि॑ । सा॒कम् । उ॒द॒ऽधे: । अ॒कृ॒न्त॒त् ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒षस॑म् । सूर्य॑म् । गाम् । अ॒र्कम् । वि॒वे॒द॒ । स्त॒नय॑न्ऽइव । द्यौ: ॥९१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभिद्या पुरं शयथेमपाचीं निस्त्रीणि साकमुदधेरकृन्तत्। बृहस्पतिरुषसं सूर्यं गामर्कं विवेद स्तनयन्निव द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभिद्य: । पुरम् । शयथा । ईम् । अपाचीम् । नि: । त्रीणि । साकम् । उदऽधे: । अकृन्तत् ॥ बृहस्पति: । उषसम् । सूर्यम् । गाम् । अर्कम् । विवेद । स्तनयन्ऽइव । द्यौ: ॥९१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. शरीर में 'काम, क्रोध, लोभ' रूप असुरों की क्रमश: "इन्द्रियों, मन व बुद्धि' में पुरियाँ बन जाती हैं। ये पुरियाँ'अपाची' [अप अञ्च]-हमें प्रभु से दूर ले-जानेवाली हैं। आसुरवृत्तियों के कारण हम संसार के विषयों में फंस जाते हैं और प्रभु को भूल जाते हैं। यदि हम इन्द्रियों को शान्त कर पाते हैं तो इन आसुर पुरियों को विदीर्ण करने में समर्थ हो जाते हैं। (शयथा) = [शी tranquility] शान्ति के द्वारा अथवा हृदय में शयन [निवास] के द्वारा अन्तर्मुखी वृत्ति के द्वारा (अपाचीम्) = प्रभु से हमें दूर ले-जानेवाली (पुरम्) = इस वासनात्मक आसुर पुरी का (ईम् विभिद्या) = निश्चय से विदारण करके, यह विदारण करनेवाला पुरुष (उदधेः साकम्) = [कामो हि समुद्रः] अनन्त विषयरूप जलवाले 'काम' के साथ (त्रीणि) = 'काम, क्रोध, लोभ' इन तीनों को (नि: अकृन्तत्) = निश्चय से काट डालता है। इनको नष्ट करके ही तो यह प्रभु की और चलता है। २. यह (बृहस्पति:) = ज्ञानी व शान्तवृत्तिबाला पुरुष (उषसम्) = उषा को, (सूर्यम्) = सूर्य को, (गाम्) = गौ को (अर्कम) = अर्क को (विवेद) = विशेषरूप से प्राप्त करता है। 'उषस्' शब्द 'उष दाहे' धातु से बनकर दोष-दहन का प्रतीक है 'सृ गतौ' से बना 'सूर्य' शब्द निरन्तर गति व क्रियाशीलता का संकेत करता है। 'गौ' शब्द 'गमयति' इस व्युत्पत्ति से अर्थों का ज्ञान देनेवाली वाणी का वाचक है और 'अर्च पूजायाम्' से बना अर्क शब्द पुजा व उपासना का वाचक है। बृहस्पति के जीवन में ये चारों वस्तुएँ बड़ी सुन्दरता से उपस्थित होती हैं। यह दोर्षों का दहन करता है-निरन्तर क्रियाशील होता है-वेदवाणी के अध्ययन से ज्ञान को बढ़ाता है और प्रभु के पूजन की वृत्तिवाला होता है। ३. ऐसा बनकर यह स्तनयन् इव द्यौः-गर्जना करते हुए युलोक के समान होता है। धुलोकस्थ सूर्य की भाँति सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, परन्तु जैसे गर्जते हुए मेघों के कारण सूर्य सन्तापकारी नहीं होता, उसी प्रकार यह बृहस्पति भी गर्जते हुए मेघ के समान ज्ञान-जल का वर्षण करता है। वर्षण से यह लोकों के सन्ताप को हरता है। सन्तापहरण के उद्देश्य से ही यह ज्ञान-प्रसार के कार्य को बड़ी मधुरता से करता है।

    भावार्थ - आसुर पुरियों का विदारण करके हम प्रभु-प्रवण वृत्तिवाले बनें। ज्ञान-प्रसार के कार्य को अहिंसा व माधुर्य के साथ करनेवाले हों।

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