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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 9
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    तं व॒र्धय॑न्तो म॒तिभिः॑ शि॒वाभिः॑ सिं॒हमि॑व॒ नान॑दतं स॒धस्थे॑। बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं॒ शूर॑सातौ॒ भरे॑भरे॒ अनु॑ मदेम जि॒ष्णुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । व॒र्धयन्त: । म॒तिऽभि॑: । शि॒वाभि॑: । सिं॒हम्ऽइव । नान॑दतम् । स॒धऽस्थे॑ ॥ बृह॒स्पति॑म् । वृषणम् । शूर॑ऽसातौ । भरे॑ऽभरे । अनु॑ । म॒दे॒म॒ । जि॒ष्णुम् ॥९१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं वर्धयन्तो मतिभिः शिवाभिः सिंहमिव नानदतं सधस्थे। बृहस्पतिं वृषणं शूरसातौ भरेभरे अनु मदेम जिष्णुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । वर्धयन्त: । मतिऽभि: । शिवाभि: । सिंहम्ऽइव । नानदतम् । सधऽस्थे ॥ बृहस्पतिम् । वृषणम् । शूरऽसातौ । भरेऽभरे । अनु । मदेम । जिष्णुम् ॥९१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. (शिवाभि:) = कल्याणी (मतिभिः) = मतियों से हम (ते) = उस प्रभु का (वर्धयन्त:) = वर्धन करते हुए (अनुमदेम) = उसकी अनुकूलता में हर्ष का अनुभव करें। हम अपनी मति को सदा शुभ बनाए रक्खें, वस्तुत: मति का शुभ बनाए रखना ही प्रभु का सर्वोत्तम आराधन है-संसार में किसी के अशुभ का विचार न करना। २. उस प्रभु का हम वर्धन करें, जो (सधस्थे) = जीवात्मा व परमात्मा के साथ-साथ रहने के स्थान 'हृदय' में (सिंहम् इव) = शेर की भाँति (नानदतम्) = गर्जन कर रहे हैं। 'तिलो वाच उदीरते हरिरेति कनिक्रदत्'-हृदयस्थ प्रभु'ज्ञान, भक्ति व कर्म' की ऊँचे-ऊँचे प्रेरणा दे रहे हैं। ३. (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी (वृषणम्) = शक्तिशाली (शूरसातौ) शूरों से संभजनीय [सेवनीय] (भरे-भरे) = प्रत्येक संग्राम में (जिष्णुम्) = विजय प्राप्त करानेवाले प्रभु को (अनुमदेम) = अनुकूल करते हुए हर्ष का अनुभव करें। सब विजय प्रभु की शक्ति व ज्ञान से ही होती है 'जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्'सब विजयों को प्रभु के प्रति अर्पण करके हम अहंकारशून्य होकर सदा आनन्दमय बने रहें।

    भावार्थ - शुभमति के हेतु से हम प्रभु का वर्धन करें। वे प्रभु हमें निरन्तर प्रेरणा दे रहे हैं। वे प्रभु ही शक्ति व ज्ञान के स्रोत हैं-सब विजयों को प्राप्त करानेवाले हैं। प्रभु की अनुकूलता में हम हर्ष का अनुभव करें।

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