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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
    31

    स॒त्यमा॒शिषं॑ कृणुता वयो॒धै की॒रिं चि॒द्ध्यव॑थ॒ स्वेभि॒रेवैः॑। प॒श्चा मृधो॒ अप॑ भवन्तु॒ विश्वा॒स्तद्रो॑दसी शृणुतं विश्वमि॒न्वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्याम् । आ॒ऽशिषम् । कृ॒णु॒त॒ । व॒य॒:ऽधै । की॒रिम् । चि॒त् । हि । अव॑थ । स्वेभि॑: । एवै॑: ॥ प॒श्चा । मृध॑: । अप॑ । भ॒व॒न्तु॒ । विश्वा॑: । तत् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । शृ॒णु॒त॒म् । वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे ॥९१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यमाशिषं कृणुता वयोधै कीरिं चिद्ध्यवथ स्वेभिरेवैः। पश्चा मृधो अप भवन्तु विश्वास्तद्रोदसी शृणुतं विश्वमिन्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्याम् । आऽशिषम् । कृणुत । वय:ऽधै । कीरिम् । चित् । हि । अवथ । स्वेभि: । एवै: ॥ पश्चा । मृध: । अप । भवन्तु । विश्वा: । तत् । रोदसी इति । शृणुतम् । विश्वमिन्वे इति विश्वम्ऽइन्वे ॥९१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (वयोधै) जीवन धारण करने के लिये (आशिषम्) मेरी प्रार्थना को (सत्याम्) सत्य (कृणुत) करो, (कीरिम्) स्तुति करनेवाले को (स्वेभिः) अपने (एवैः) उद्योगों से तुम (चित् हि) अवश्य ही (अवथ) बचाते हो। (विश्वा) सब (मृधः) सतानेवाली सेनाएँ (पश्चा) पीछे (अप भवन्तु) हट जावें (तत्) इसको, (विश्वमिश्वे) हे सबमें व्यापक (रोदसी) आकाश और भूमि ! (शृणुतम्) दोनों सुनो ॥११॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर प्रजा की रक्षा करें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(सत्याम्) यथार्थाम् (आशिषम्) प्रार्थानाम् (कृणुत) कुरुत (वयोधै) प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै। पा० ३।४।१०। वयस्+दधातेः-कै प्रत्ययस्तुमर्थे। जीवनं धारयितुम् (कीरिम्) अ० २०।१७।१२। स्तोतारम् (चित्) अवश्यम् (हि) एव (अवथ) रक्षथ (स्वेभिः) आत्मीयैः (एवैः) गमनैः। उद्योगैः (पश्चा) पश्चात् (मृधः) हिंसिकाः सेनाः (अप) दूरे (भवन्तु) (विश्वाः) सर्वाः (तत्) वचनम् (रोदसी) हे आकाशभूमी (शृणुतम्) (विश्वमिन्वे) अ० २०।३।४। हे सर्वव्यापिके ॥

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    विषय

    सत्या आशी:

    पदार्थ

    १. हे देवो! (वयोधै) = उत्तम जीवन के धारण व स्थापन के लिए (आशिषम्) = इच्छाओं को (सत्याम्) = सत्य (कृणुत) = करो। इच्छाएँ सत्य होगी तो जीवन भी उत्तम बनेगा। २. (कीरिम्) = इस स्तोता को (चित् हि) = निश्चय से (स्वेभिः एवैः) = अपने कर्मों के द्वारा (अवथ) = रक्षित करते हो। यह स्तोता क्रियाशील बनता है और इसके ये कर्म इसके रक्षण का साधन बनते हैं। ३. (पश्चा) = अब इस क्रियाशीलता के होने पर-क्रियाशीलता के पीछे (विश्वा:) = सब (मृधः) = काम, क्रोध, लोभ आदि (शव अपभवन्तु) = हमसे दूर हों। हम काम-क्रोध आदि के शिकार न हों। (तत्) = हमारी इस प्रार्थना को (विश्वमिन्वे) = सब संसार को प्रीणित करनेवाले (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (शृणुतम्) = सुनें। हमारी इस प्रार्थना को क्रियान्वित करने के लिए सारा संसार अनुकूल हो।

    भावार्थ

    हमारी इच्छाएँ सत्य हों। हम स्तोताओं का कर्मों के द्वारा रक्षण हो। काम, क्रोध व लोभ हमसे दूर हों। हमारी यह कामना सम्पूर्ण संसार की अनुकूलता द्वारा पूर्ण हो।

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    भाषार्थ

    हे उपासको! तुम (वयोधैः) वयोवृद्ध-उपासकों द्वारा प्रदर्शित विधियों द्वारा, (सत्याम् आशिषम्) परमेश्वर के सत्य आशीर्वाद को (कृणुत) प्राप्त करो। और (स्वेभिः) निज (एवैः) प्रयत्नों द्वारा (कीरिम्) जगत् के कर्त्ता को (चित्) भी (हि) निश्चय से (अवथ) प्राप्त करो। (पश्चा) इस के पश्चात् ही (विश्वाः मृधः) संग्रामकारी कामादि सब शत्रु (अप भवन्तु) छूट जाएँगे। (विश्वमिन्वे) विश्वरूप या विराट्रूप परमेश्वर को प्राप्त होनेवाले (रोदसी) हे स्त्री-पुरुषो! (शृणुतम्) मेरे इस उपर्युक्त कथन को ध्यानपूर्वक सुनो।

    टिप्पणी

    [रोदसी का अर्थ है—द्युलोक और भूलोक। वेदों में पुरुष को द्यौ, तथा स्त्री को पृथिवी कहा गया है। यथा—“द्यौरहं पृथिवी त्वं, ताविह सं भवाव, प्रजामा जनयावहै” (अथर्व০ १४.२.७१) मन्त्रों में कहा है कि तुम दोनों सुनो। सुनने का व्यवहार चेतनों में ही सम्भव है, अचेतनों में नहीं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    O Brhaspati, O leading lights of humanity, for food and energy, good health and age, fulfil the hopes and ambitions of the people and justify your words of purpose to the point of truth without compromise. Protect the cooperator and celebrant with your own power and security. Then let all violence, enmity and sabotage be overcome and cast off totally far away. And may the heaven and earth, givers of universal fulfillment, listen to our prayer and adoration. O Brhaspati, O leading lights of humanity, for food and energy, good health and age, fulfil the hopes and ambitions of the people and justify your words of purpose to the point of truth without compromise. Protect the cooperator and celebrant with your own power and security. Then let all violence, enmity and sabotage be overcome and cast off totally far away. And may the heaven and earth, givers of universal fulfilment listen to our prayer and adoration.

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    Translation

    O men of wisdom, for the attainment of grains you fulfil your blessings and protect the devoice of prayers with your knowledge and activities. May all the evils, thereafter, be away from us. O teacher and preacher, you both hear of our calls as you love all.

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    Translation

    O men of wisdom, for the attainment of grains you fulfill\ your blessings and protect the devotee of prayers with your knowledge and activities. May all the evils, thereafter, be away from us. O teacher and preacher, you both hear of our calls as you love all.

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    Translation

    Just as strong wind or electricity completely shatters the head of the cloud of the vast ocean (he.., atmosphere by its great energy and causes the flowing waters to rain down, while destroying the cloud, similarly does theGreat Lord, the Destroyer of Ignorance and evil, the preceptor or the learned person, thoroughly breaks open the secrets of vast ocean of knowledge, the source of all joys, and destroying the dark clouds of ignorance and evil, sets in motion the seven vital breaths to spiritual light. O teacher and disciple, father and mother, male or female, thoroughly protect us through divine qualities.

    Footnote

    (i) ‘Arbuda’ is not a demon but a ‘cloud’. (ii) Similarly ‘Ahi’ is not a serpent but a ‘cloud’. (iii) ‘Sapta- ‘सर्पण करने वाले’ flowing.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सत्याम्) यथार्थाम् (आशिषम्) प्रार्थानाम् (कृणुत) कुरुत (वयोधै) प्रयै रोहिष्यै अव्यथिष्यै। पा० ३।४।१०। वयस्+दधातेः-कै प्रत्ययस्तुमर्थे। जीवनं धारयितुम् (कीरिम्) अ० २०।१७।१२। स्तोतारम् (चित्) अवश्यम् (हि) एव (अवथ) रक्षथ (स्वेभिः) आत्मीयैः (एवैः) गमनैः। उद्योगैः (पश्चा) पश्चात् (मृधः) हिंसिकाः सेनाः (अप) दूरे (भवन्तु) (विश्वाः) सर्वाः (तत्) वचनम् (रोदसी) हे आकाशभूमी (शृणुतम्) (विश्वमिन्वे) अ० २०।३।४। हे सर्वव्यापिके ॥

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