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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१
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    हं॒सैरि॑व॒ सखि॑भि॒र्वाव॑दद्भिरश्म॒न्मया॑नि॒ नह॑ना॒ व्यस्य॑न्। बृह॒स्पति॑रभि॒कनि॑क्रद॒द्गा उ॒त प्रास्तौ॒दुच्च॑ वि॒द्वाँ अ॑गायत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हंसै:ऽइ॑व । सखि॑ऽभि: । वाव॑दत्ऽभि: । अ॒श्म॒न्ऽमया॑नि । नह॑ना । व‍ि॒ऽअस्य॑न् ॥ बृह॒स्पति॑:। अ॒भि॒ऽकनिक्रद॑त् । गा: । उ॒त । प्र । अ॒स्तौ॒त् । उत् । च॒ । वि॒द्वान् । अ॒गा॒य॒त् ॥९०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हंसैरिव सखिभिर्वावदद्भिरश्मन्मयानि नहना व्यस्यन्। बृहस्पतिरभिकनिक्रदद्गा उत प्रास्तौदुच्च विद्वाँ अगायत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हंसै:ऽइव । सखिऽभि: । वावदत्ऽभि: । अश्मन्ऽमयानि । नहना । व‍िऽअस्यन् ॥ बृहस्पति:। अभिऽकनिक्रदत् । गा: । उत । प्र । अस्तौत् । उत् । च । विद्वान् । अगायत् ॥९०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (हंसैः इव) हंसों के समान [विवेकी] (वावदद्भिः) स्पष्ट बोलते हुए (सखिभिः) मित्र पुरुषों द्वारा (अश्मन्मयानि) व्याप्तिवाले (नहना) बन्धनों [कठिन विघ्नों] को (व्यस्यन्) हटाते हुए, (अभिकनिक्रदत्) सब ओर उपदेश करते हुए (विद्वान्) विद्वान् (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े विद्वानों के स्वामी परमात्मा] ने (गाः) वेदवाणियों को (प्र अस्तौत्) प्रस्तुत किया है [सामने रक्खा है] (उत च) और भी (उत् अगायत्) ऊँचा गाया है ॥३•॥

    भावार्थ

    जिस पक्षपातरहित परमात्मा ने प्रलय के भारी अन्धकार को मिटाकर विवेकी प्यारे भक्त ऋषियों द्वारा संसार के सुख के लिये वेदों को प्रकाशित किया है, उस जगदीश्वर की उपासना से अपने आत्मा में सब लोग प्रकाश करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(हंसैरिव) हंसपक्षिवद्विवेकिभिः (सखिभिः) मित्रैः (वावदद्भिः) वद व्यक्तायां वाचि-यङ्लुकि शतृ। स्पष्टं कथयद्भिः (अश्मन्मयानि) अशू व्याप्तौ-मनिन्। व्याप्तिमन्ति (नहना) बन्धनानि। विघ्नकर्माणि (व्यस्यन्) विक्षिपन्। शिथिलयन् (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां रक्षकः (अभिकनिक्रदत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-यङ्लुकि, शतृ। आभिमुख्येन भृशमुपदिशन् (गाः) वेदवाणीः (उत) अपि (प्र अस्तौत्) प्रस्तुतवान् (उत्) उच्चैः (च) (विद्वान्) (अगायत्) उपदिष्टवान् ॥

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    विषय

    'पाषाणमय बन्धनों' का भेदन

    पदार्थ

    १.(बृहस्पतिः) = वेदज्ञान का पति बननेवाला ज्ञानी पुरुष (अश्मन्मयानि) = पत्थरों से बने हुए पाषाणतुल्य दृढ़ (नहना) = बन्धनों को (व्यस्यन्) = दूर फेंकने के हेतु से (वावदद्धिः) = प्रभु-स्तोत्रों का खूब ही उच्चारण करनेवाले (हंसैः सखिभिः) = हंस-तुल्य मित्रों के साथ (गा:) = इन वेदवाणियों का (अभिकनिक्रदत) = प्रात:-सायं उच्चारण करता है। काम, क्रोध, लोभरूप आसुरवृत्तियों क्रमश: इन्द्रियों, मन व बुद्धि में अपने अधिष्ठानों को दुद बनाती हैं, ये ही असरों की तीन पुरियों कहलाती हैं। बड़ी दृढ़ होने से ये पुरियाँ 'अश्मन्मयी' हैं। इन पुरियों को ज्ञानाग्नि ही भस्म करनेवाली होती है। इसी उद्देश्य से बृहस्पति अपने मित्रों के साथ ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करता है। ये प्रिय हंसों के समान हों-शुभ का ग्रहण करनेवाले, सरल चाल से चलनेवाले व निरभिमान । ऐसे मित्रों का संग ही हमें उत्थान की ओर ले जाता है। २. यह बृहस्पति आसुर पुरियों के विध्वंस के उद्देश्य से ही (प्रास्तौत्) = प्रकर्षेण प्रभु का स्तवन करता है। (उत) = और (विद्वान्) = ज्ञानी बनकर (उदगायत् च) = अवश्य प्रभु के गुणों का गायन करता है। यह गुणगान उसे उन गुणों के धारण के लिए प्रेरित करता है। इन गुणों के धारण से काम-क्रोध-लोभ का विलय ही हो जाता है।

    भावार्थ

    हम ज्ञान की प्रवृत्तिवाले बनकर उत्तम मित्रों के साथ ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करें और प्रभु-स्तवन करते हुए काम, क्रोध, लोभ' के दृढ़ बन्धनों को शिथिल कर डालें।

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    भाषार्थ

    (अश्मन्मयानि) लोहसमान सुदृढ़ (नहना) राग-द्वेष-अविद्या आदि के बन्धनों को (व्यस्यन्) काटते हुए (विद्वान्-बृहस्पतिः) विज्ञानी ब्रह्माण्डपति ने—(वावदद्भिः) कलरव करते हुए (हंसैः) नीर-क्षीर विवेकी हंसों के सदृश वर्तमान विवेकी-परमहंस (सखिभिः) ऋषि-सखाओं द्वारा, (वावदद्भिः) संवादरूप में, (गाः) वेदवाणियों को (प्रास्तौत्) प्रस्तुत किया। और (अभि) साक्षात् रूप में (कनिक्रदत्) इन्हें वेदवाणियों का उपदेश दिया। (उत च) और तदनन्तर इन ऋषि-सखाओं द्वारा वेदवाणियों का (उद् अगायत्) बृहस्पति ने उच्चस्वर में गान कराया अर्थात् उनके द्वारा प्रजा को वेदवाणियों का मौखिक उपदेश कराया।

    टिप्पणी

    [इस विषय का प्रसङ्ग अथर्ववेद में अन्यत्र भी हुआ है। यथा—“यत्र ऋषयः प्रथमजा ऋचः साम यजुः मही” (अथर्ववेद की वाणी), अर्थात् मनुष्य-सृष्टि के आदि में प्रथमोत्पन्न ऋषियों द्वारा परमेश्वर ने ऋग्वेदादि का उपदेश दिया (अथर्व০ १०.७.१४)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Chanting with friends as with hansa-like simple sinless souls of purity, breaking the adamantine chains of karmic bondage, loudly proclaiming the divine Word of omniscience, Brhaspati, master celebrant of the Infinite Spirit, blest with knowledge and vision divine, sings and adores the lord divine. Chanting with friends as with hansa-like simple sinless souls of purity, breaking the adamantine chains of karmic bondage, loudly proclaiming the divine Word of omniscience, Brhaspati, master celebrant of the Infinite Spirit, blest with knowledge and vision divine, sings and adores the lord divine.

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    Translation

    The master of vedic speech and knowledge with the friend devotees of prayer like swans loosening the rocky hinderances pronounces the vedic verses, proposes the singing of saman and sings.

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    Translation

    The master of vedic speech and knowledge with the friend devotees of prayer like Swans loosening the rocky hinderances pronounces the vedic verses, proposes the singing of saman and sings.

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    Translation

    The Mighty Lord of the vast universe or the Vedic lore or the great yogi, wishing to diffuse or attain spiritual enlightenment, amidst the binding darkness of the inert matter, of Vedic knowledge or spiritual light, lying deep in the secret recesses of the soul, just beneath the power of mental concentration and far above the organs of sense and actions, realises the three lights of Rig, Yajur and Sama or knowledge, action and devotion and reveals all the three of them.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(हंसैरिव) हंसपक्षिवद्विवेकिभिः (सखिभिः) मित्रैः (वावदद्भिः) वद व्यक्तायां वाचि-यङ्लुकि शतृ। स्पष्टं कथयद्भिः (अश्मन्मयानि) अशू व्याप्तौ-मनिन्। व्याप्तिमन्ति (नहना) बन्धनानि। विघ्नकर्माणि (व्यस्यन्) विक्षिपन्। शिथिलयन् (बृहस्पतिः) बृहतां ब्रह्माण्डानां रक्षकः (अभिकनिक्रदत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-यङ्लुकि, शतृ। आभिमुख्येन भृशमुपदिशन् (गाः) वेदवाणीः (उत) अपि (प्र अस्तौत्) प्रस्तुतवान् (उत्) उच्चैः (च) (विद्वान्) (अगायत्) उपदिष्टवान् ॥

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