अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 10
य॒दा वाज॒मस॑नद्वि॒श्वरू॑प॒मा द्याम॑रुक्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑। बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । वाज॑म् । असनत् । वि॒श्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरु॑क्षत् । उत्ऽत॑राणि । सद्म ॥ बृह॒स्पति॑म् । वृष॑णम् । व॒र्धय॑न्त: । नाना॑ । सन्त: । बिभ्र॑त: । ज्योति॑: । आ॒सा ॥९१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा वाजमसनद्विश्वरूपमा द्यामरुक्षदुत्तराणि सद्म। बृहस्पतिं वृषणं वर्धयन्तो नाना सन्तो बिभ्रतो ज्योतिरासा ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । वाजम् । असनत् । विश्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरुक्षत् । उत्ऽतराणि । सद्म ॥ बृहस्पतिम् । वृषणम् । वर्धयन्त: । नाना । सन्त: । बिभ्रत: । ज्योति: । आसा ॥९१.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यदा) जब उस [परमात्मा] ने (विश्वरूपम्) सब संसार में रूप करनेवाले (वाजम्) बल को (असनत्) सेवन किया, और (द्याम्) चमकते हुए सूर्य को और (उत्तराणि) अधिक उत्तम (सद्म) लोकों को (आ अरुक्षत्) ऊँचा किया। [तब] (वृषणम्) उस बलवान् (बृहस्पतिम्) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमात्मा] को (आसा) मुख से (नाना) नाना प्रकार (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए (सन्ताः) सन्त लोग [सत्पुरुष] (ज्योतिः) ज्योति को (बिभ्रतः) धारण करनेवाले [हुए हैं] ॥१०॥
भावार्थ
जब परमात्मा सूर्य आदि लोकों को उत्पन्न करके अपना सामर्थ्य दिखाता है, तब योगी जन उस जगदीश्वर की स्तुति करते हुए अपने आत्मा को प्रकाशयुक्त करते हैं ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(यदा) (वाजम्) बलम् (असनत्) सेवितवान् (विश्वरूपम्) सर्वस्मिन् संसारे रूपं यस्मात् तम् (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (आ अरुक्षत्) आरोहितवान्। उत्पादितवानित्यर्थः (उत्तराणि) उत्तमतराणि (सद्म) सद्मानि। लोकान् (बृहस्पतिम्) परमात्मानम् (वृषणम्) बलवन्तम् (वर्धयन्तः) स्तुवन्तः (नाना) विविधप्रकारेण (सन्तः) सत्पुरुषाः (बिभ्रतः) धारयन्तः (ज्योतिः) प्रकाशम् (आसा) आस्येन। मुखेन ॥
विषय
उत्तर सद्म का आरोहण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की अनुकूलता में (यदा) = जब मनुष्य (विश्वरूपम्) = 'तेज-वीर्य ओजस्, बल, मन्यु व सहस्' इन सब रूपोंवाले (वाजम्) = बल को (असनत्) = प्राप्त करता है, तब यह व्यक्ति (द्याम् अरुक्षत्) = प्रकाशमय लोक का आरोहण करता है, (उत्तराणि सद्य) = उत्कृष्ट गृहों का आरोहण करता है। पृथिवीलोक से ऊपर उठकर यह अन्तरिक्षलोक में पहुँचता है, अन्तरिक्ष से द्युलोक में, द्युलोक से ऊपर उठकर हम ब्रह्मलोक में पहुँचते हैं। यह ब्रह्मलोक ही 'उत्तर सद्य है। २. इस समय हम (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी (वृषणम्) = शक्तिशाली प्रभु को (वर्धयन्त:) = बढ़ाते हुए होते हैं। उस ब्रह्म का सतत स्मरण करते हुए सबमें उस ब्रह्म की सत्ता को अनुभव करते हुए उनके साथ एकत्व का अनुभव करते हैं। इस अनुभव से (नाना सन्त:) = उन अनेक रूपों में होते हुए (आसा) = मुख से (ज्योति: बिभ्रत:) = प्रकाश का धारण करते हुए होते हैं। उस समय हम सर्वत्र ज्ञान का प्रचार करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
हम तेजस्विता का धारण करें, प्रकाशमयलोक में आरूढ हों। प्रभु का वर्धन करते हुए भी सबके साथ एकत्व का दर्शन करें और ज्ञान का प्रसार करें।
भाषार्थ
परमेश्वर जब (विश्वरूपम्) नानाविध (वाजम्) बल या शक्तियाँ (असनत्) प्रदान करता है, तब उपासक ध्यानबल द्वारा, (द्याम्) मस्तिष्क में (आ अरुक्षत्) आरोहण करता है, अर्थात् शनैः-शनैः निचले चक्रों से आरम्भ कर (उत्तराणि सद्म) ऊपर-ऊपर के चक्रों में आरोहण करता हुआ, मस्तिष्क के चक्र तक आरोहण करता है। और फिर (नाना सन्तः) ये नाना-सन्त अर्थात् योगी (ज्योतिः) परमेश्वरीय ज्योति को (बिभ्रतः) धारण करते हुए, (आसा) अपने मौखिक उपदेशों द्वारा, (वृषणम्) आनन्दरसवर्षी (बृहस्पतिम्) महाब्रह्माण्डपति का (वर्धयन्तः) बढ़-बढ़ कर वर्णन करते हैं।
टिप्पणी
[द्याम्=“शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत” (यजुः০ ३१.१३), अतः द्यौः=सिर, मस्तिष्क। उत्तराणि सद्म=सुषुम्णानाड़ी में ८ चक्र होते हैं। नीचे गुदा के समीप मूलाधार चक्र होता है, उसके ऊपर की ओर उत्तरोत्तर चक्र हैं—स्वाधिष्ठान, मणिपुर, हृदय-चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञाचक्र, ब्रह्मरन्ध्र, तथा सहस्रार चक्र। योगी निचले-चक्रों में ध्यानाभ्यास द्वारा शनैः-शनैः उत्तरोत्तर चक्रों अर्थात् कमलों को विकसित करता हुआ, मस्तिष्क तक आरोहण करता है। मस्तिष्क में आज्ञा-चक्र तक पहुंच कर मस्तिष्क के ओर उत्तरोत्तर चक्रों में आरोहण करता है। ये उत्तरोत्तर चक्र हैं—ब्रह्मरन्ध्र तथा सहस्रार-चक्र। सहस्रारचक्र में परमेश्वरीय-ज्योति का महाप्रकाश प्रकट होता है।]
विषय
विद्वन्, राजा ईश्वर।
भावार्थ
(यदा) जब बृहस्पति, महान् राष्ट्र का स्वामी या विद्वान् पुरुष (विश्वरूपम्) सब प्रकार के (वाजम्) ऐश्वर्य या ज्ञानी को (असनत्) प्राप्त कर लेता है और (द्याम्) ज्ञान की उत्तम कोटि, राजसभा और (उत्तराणि) उत्कृष्ट (सद्म) स्थानों या पदों को (आ अरुक्षत्) प्राप्त होता है तब (वृषणम्) बलवान् (बृहस्पतिम्) बड़े राष्ट्र के पालक एवं वेद के विद्वान को (आसा) मुखसे (ज्योतिः बिभ्रतः) तेज और प्रकाश के धारण करने वाले (सन्तः) सज्जन पुरुष स्तुति द्वारा (नाना वर्धयन्तः) नाना प्रकार से उसकी वृद्धि करते हैं। उसका गुणानुवाद करते हैं। योगी के पक्ष में—वह जब (विश्वरूपम् वाजम्) परमेश्वरीय वाज बल ज्ञान या विभूति को प्राप्त कर लेता है और मोक्ष और उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त कर लेता है तब उसके (आसा ज्योतिः बिभ्रतः) मुख द्वारा या उपदेश द्वारा ज्ञान ज्योति को धारण करने वाले सत्पुरुष नाना प्रकार से उसके गुणानुबाद करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य आङ्गिरस ऋषिः। बृहस्पति देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
When Brhaspati achieves food, energy and victories and higher possibilities of universal order and, like the sun, reaches and illuminates the heavens with light, then those who receive and shine with light like the planets, being many and various, exalt the mighty generous master ruler with words of adoration. 10. When Brhaspati achieves food, energy and victories and higher possibilities of universal order and, like the sun, reaches and illuminates the heavens with light, then those who receive and shine with light like the planets, being many and various, exalt the mighty generous master ruler with words of adoration.
Translation
The sun-beams containing splendour, scattering themeselvs in all directions, strengthen the sun when this (sun) gives various wealths of grain, rises high in heaven and mounts over the regions of north direction (i. e when the Sun enters in the north solstice).
Translation
The sun-beams containing splendor, scattering themselves in all directions, strengthen the sun when this (sun) gives various wealth’s of grain, rises high in heaven and mounts over the regions of north direction (i.e. when the sun enters in the north solstice).
Translation
O learned persons, shower your true blessings for the longevity of life and ever protect your praise-singer with your knowledge. Let the violent foe or calamity be kept off. Let the teacher and the taught, the father and the mother, and the male and the female, satisfying the world with knowledge and food, listen to that Vedic teaching of ours.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(यदा) (वाजम्) बलम् (असनत्) सेवितवान् (विश्वरूपम्) सर्वस्मिन् संसारे रूपं यस्मात् तम् (द्याम्) प्रकाशमानं सूर्यम् (आ अरुक्षत्) आरोहितवान्। उत्पादितवानित्यर्थः (उत्तराणि) उत्तमतराणि (सद्म) सद्मानि। लोकान् (बृहस्पतिम्) परमात्मानम् (वृषणम्) बलवन्तम् (वर्धयन्तः) स्तुवन्तः (नाना) विविधप्रकारेण (सन्तः) सत्पुरुषाः (बिभ्रतः) धारयन्तः (ज्योतिः) प्रकाशम् (आसा) आस्येन। मुखेन ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যদা) যখন প্রসিদ্ধ [পরমাত্মা] (বিশ্বরূপম্) সমস্ত সংসারকে রূপ/আকার প্রদায়ী (বাজম্) বল (অসনৎ) সেবন করেন/করলেন এবং (দ্যাম্) প্রকাশমান সূর্যকে এবং (উত্তরাণি) অধিক উত্তম (সদ্ম) লোক-সমূহকে (আ অরুক্ষৎ) আরোহিত করলেন। [তখন] সেই প্রসিদ্ধ (বৃষণম্) বলবান্ (বৃহস্পতিম্) বৃহস্পতিকে [বিশাল ব্রহ্মাণ্ডের স্বামী পরমাত্মাকে] (আসা) মুখ দিয়ে (নানা) বিবিধ প্রকারে (বর্ধয়ন্তঃ) স্তুতি গায়ন পূর্বক (সন্তাঃ) [ সৎপুরুষ (জ্যোতিঃ) জ্যোতি (বিভ্রতঃ) ধারণকারী [হয়েছে]॥১০॥
भावार्थ
যখন পরমাত্মা সূর্যাদি সমস্ত লোকসমূহ সৃজন করে নিজ সামর্থ্য প্রদর্শন করেন, তখন যোগীগণ সেই প্রসিদ্ধ জগদীশ্বরের স্তুতি গায়ন পূর্বক নিজ আত্মাকে প্রকাশযুক্ত করে ॥১০॥
भाषार्थ
পরমেশ্বর যখন (বিশ্বরূপম্) নানাবিধ (বাজম্) বল বা শক্তি (অসনৎ) প্রদান করেন, তখন উপাসক ধ্যানবল দ্বারা, (দ্যাম্) মস্তিষ্কে (আ অরুক্ষৎ) আরোহণ করে, অর্থাৎ শনৈঃ-শনৈঃ নীচের চক্র থেকে আরম্ভ করে (উত্তরাণি সদ্ম) উপরের চক্রে আরোহণ করে, মস্তিষ্কের চক্র পর্যন্ত আরোহণ করে। এবং তদনন্তর (নানা সন্তঃ) এই নানা-সাধু অর্থাৎ যোগী (জ্যোতিঃ) পরমেশ্বরীয় জ্যোতি (বিভ্রতঃ) ধারণ করে, (আসা) নিজের মৌখিক উপদেশ দ্বারা, (বৃষণম্) আনন্দরসবর্ষী (বৃহস্পতিম্) মহাব্রহ্মাণ্ডপতির (বর্ধয়ন্তঃ) বড়াই করে বর্ণনা করে।
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