अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्न उ॒षासो॑ वी॒रव॑तीः॒ सद॑मुच्छन्तु भ॒द्राः। घृ॒तं दुहा॑ना वि॒श्वतः॒ प्रपी॑ता यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑ऽवती: । गोऽम॑ती: । न॒: । उ॒षस॑: । वी॒रऽव॑ती: । सद॑म् । उ॒च्छ॒न्तु॒ । भ॒द्रा: । घृ॒तम् । दुहा॑ना: । वि॒श्वत॑: । प्रऽपी॑ता: । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभि॑: । सदा॑ । न॒: ॥१६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वावतीर्गोमतीर्न उषासो वीरवतीः सदमुच्छन्तु भद्राः। घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीता यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वऽवती: । गोऽमती: । न: । उषस: । वीरऽवती: । सदम् । उच्छन्तु । भद्रा: । घृतम् । दुहाना: । विश्वत: । प्रऽपीता: । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभि: । सदा । न: ॥१६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
विषय - 'अश्वावती:, गोमती: वीरवती:' उषासः
पदार्थ -
१.हे प्रभो! (न:) = हमारे लिए (अश्वावती:) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाली, (गोमती:) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियों वाली तथा (वीरवती:) = प्रशस्त यज्ञानियोंवाली [बीर-the sacrificial fire] (उषास:) = उषाएँ (सदम्) = सदा (उच्छन्तु) = रात्रि के अन्धकार को दूर करनेवाली हों। ये उषाएँ (भद्रा:) = हमारे लिए कल्याणकर हों। २. (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति को हमारे अन्दर (दुहाना:) = पूर्ण करती हुई तथा (विश्वत:) = सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त हुई-हुई ये उषाएँ हमारे लिए सचमुच कल्याण का कारण बनें। (यूयम्) = सब देवो!आप (स्वस्तिभि:) = कल्याण-मागों के द्वारा (सदा) = सदा (नः) = हमें (पात) = सुरक्षित करो।
भावार्थ -
उषाकाल में प्रबुद्ध होकर हम उत्तम कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंवाले बनें, यज्ञशील हों हमारा ज्ञान बढ़े और हम सब प्रकार से वृद्धि को प्राप्त हों।
विशेष -
अब यह उपासक सबका मित्र बनता है, विश्वामित्र' नामवाला होता है । यह कृषि आदि उपकारी कार्यों में ही प्रवृत्त होता है -