अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - विश्वेदेवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अजरक्षत्र
तीक्ष्णी॑यांसः पर॒शोर॒ग्नेस्ती॒क्ष्णत॑रा उ॒त। इन्द्र॑स्य॒ वज्रा॒त्तीक्ष्णी॑यांसो॒ येषा॒मस्मि॑ पु॒रोहि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठतीक्ष्णी॑यांस: । प॒र॒शो: । अ॒ग्ने: । ती॒क्ष्णऽत॑रा: । उ॒त । इन्द्र॑स्य । वज्रा॑त् । तीक्ष्णी॑यांस: । येषा॑म् । अस्मि॑ । पु॒र:ऽहि॑त: ॥१९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तीक्ष्णीयांसः परशोरग्नेस्तीक्ष्णतरा उत। इन्द्रस्य वज्रात्तीक्ष्णीयांसो येषामस्मि पुरोहितः ॥
स्वर रहित पद पाठतीक्ष्णीयांस: । परशो: । अग्ने: । तीक्ष्णऽतरा: । उत । इन्द्रस्य । वज्रात् । तीक्ष्णीयांस: । येषाम् । अस्मि । पुर:ऽहित: ॥१९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
विषय - परशु, अग्नि व वन से भी तीव्र
पदार्थ -
१. पुरोहित राष्ट्र-सैनिकों में आत्मबल का उद्बोधन करते हुए कहता है कि (येषाम्) = जिनका (पुरोहितः अस्मि) = मैं पुरोहित हूँ, वे (परशोः तीक्ष्णीयांस:) = कुल्हाड़े से भी अधिक तीक्ष्ण हैं। कुल्हाड़ा शत्रुओं का इतना छेदन नहीं कर सकता, जितना कि ये आत्मबल-सम्पन्न वीर कर पाते हैं, (उत) = और ये वीर तो (अग्ने: तीक्ष्णतरा:) = अग्नि से भी अधिक तीक्ष्ण हैं। अग्नि ने क्या विध्वंस करना, जो विध्वंस ये वीर कर सकते हैं। २. ये सैनिक तो (इन्द्रस्य वज्रात्) = इन्द्र के वज्र से भी-प्रभु के द्वारा मेषों से गिरायी जानेवाली विद्युत् से भी (तीक्ष्णीयांस:) = अधिक तीक्ष्ण हैं।
भावार्थ -
कुल्हाड़ों, अग्नि व विद्युत् ने भी शत्रुओं का वैसा छेदन क्या करना, जैसाकि राष्ट्र के आत्मबल-सम्पन्न बीर कर पाते हैं।
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