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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवाः, चन्द्रमाः, इन्द्रः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - अजरक्षत्र

    अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑संशिते। जया॒मित्रा॒न्प्र प॑द्यस्व ज॒ह्ये॑षां॒ वरं॑वरं॒ मामीषां॑ मोचि॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ऽसृष्टा । परा॑ । प॒त॒ । शर॑व्ये । ब्रह्म॑ऽसंशिते । जय॑ । अ॒मित्रा॑न् । प्र । प॒द्य॒स्व॒ । ज॒हि । ए॒षा॒म् । वर॑म्ऽवरम् । मा । अ॒मीषा॑म् । मो॒चि॒ । क: । च॒न ॥१९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते। जयामित्रान्प्र पद्यस्व जह्येषां वरंवरं मामीषां मोचि कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवऽसृष्टा । परा । पत । शरव्ये । ब्रह्मऽसंशिते । जय । अमित्रान् । प्र । पद्यस्व । जहि । एषाम् । वरम्ऽवरम् । मा । अमीषाम् । मोचि । क: । चन ॥१९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे (ब्रह्मसंशिते) = ज्ञान के द्वारा तीन किये गये (शरव्ये) = हिंसा-कुशल इषो [बाण]! तू (अवसृष्टा) = धनुष से छोड़ा हुआ (परापत) = दूर जाकर शत्रुओं पर पड़, शस्त्र को विचारपूर्वक शत्रुओं पर फेंका जाए। २. शरव्ये! तू (जय) = विजय करनेवाली हो। तू (अमित्रान् प्रपद्यस्व) = शत्रुओं पर विशेषरूप से गिर । (एषाम्) = इनके (वरं वरम्) = श्रेष्ठ-श्रेष्ठ सैनिकों को-चुने हुए वीरों को (जहि) = समाप्त कर दे। (अमीषाम्) = इनमें (कश्चन) = कोई भी (मा मोचि) = छूट न जाए।

    भावार्थ -

    हम समझदारी से अस्त्रवर्षा करके शत्रु के चुने हुए बीरों का विध्वंस कर दें। इनमें से कोई बच न पाये। मुख्य सैनिकों के विनाश से सामान्य सैनिकों का विनाश अनावश्यक हो जाता है।

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