अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - विश्वा भुवनानि
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे सं ब॑भूविमे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि अ॒न्तः। उ॒तादि॑त्सन्तं दापयतु प्रजा॒नन्र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ ॥
स्वर सहित पद पाठवाज॑स्य । नु । प्र॒ऽस॒वे । सम् । ब॒भू॒वि॒म॒ । इ॒मा । च॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒न्त: । उ॒त । अदि॑त्सन्तम् । दा॒प॒य॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । र॒यिम् । च॒ । न॒: । सर्व॑ऽवीरम् । नि । य॒च्छ॒ ॥२०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजस्य नु प्रसवे सं बभूविमेमा च विश्वा भुवनानि अन्तः। उतादित्सन्तं दापयतु प्रजानन्रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छ ॥
स्वर रहित पद पाठवाजस्य । नु । प्रऽसवे । सम् । बभूविम । इमा । च । विश्वा । भुवनानि । अन्त: । उत । अदित्सन्तम् । दापयतु । प्रऽजानन् । रयिम् । च । न: । सर्वऽवीरम् । नि । यच्छ ॥२०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
विषय - वाजस्य प्रसवे संबभूविम
पदार्थ -
१.(नु) = अब (वाजस्य) = उस शक्ति के पुज प्रभु के (प्रसवे) = [प्रेरणे] प्रेरण में (संबविम) = सम्यक हों-सदा प्रभु की प्रेरणा के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त हों (च) = और (इमा विश्वा भुवनानि) = सूर्य आदि इन सब लोकों को (अन्तः) = अपने अन्दर देखने का प्रयत्न करें। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' जो कुछ पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में। ब्रह्माण्ड के स! आदि देव चक्षु आदि के रूप में शरीर में रहते हैं। प्रभु की प्ररेणा में चलता हुआ पुरुष शरीर को देवस्थली के रूप में देखता है। यह शरीर उसकी दृष्टि में 'देवमन्दिर' हो जाता है। २. वे प्रभु (अदित्सन्तम् उत) = न देने की इच्छावाले को भी (प्रजानन्) = खूब समझते हुए-उचित प्रेरणा के द्वारा (दापयतु) = दान की वृत्तिवाला बनाएँ (च) = और हे प्रभो! आप (न:) = हमारे लिए (सर्ववीरम् रयिम्) = वीर सन्तानोंवाली सब सम्पति को (नियच्छ) = नियमितरूप से दीजिए।
भावार्थ -
हम शक्तिपञ्ज प्रभु की प्ररेणा में वर्ते। सुर्य आदि सब देवों को अपने अन्दर देखें, इस शरीर को देवमन्दिर जानें। प्रभु हमें दानशील बनाएँ और वीर सन्तानों से युक्त धन प्रदान करें।
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