अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
त्वं नो॑ अग्ने अ॒ग्निभि॒र्ब्रह्म॑ य॒ज्ञं व॑र्धय। त्वं नो॑ देव॒ दात॑वे र॒यिं दाना॑य चोदय ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । न॒: । अ॒ग्ने॒ । अ॒ग्निऽभि॑: । ब्रह्म॑ । य॒ज्ञम् । च॒ । व॒र्ध॒य॒ । त्वम् । न॒: । दे॒व॒ । दात॑वे । र॒यिम् । दाना॑य । चो॒द॒य॒ ॥२०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं वर्धय। त्वं नो देव दातवे रयिं दानाय चोदय ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । न: । अग्ने । अग्निऽभि: । ब्रह्म । यज्ञम् । च । वर्धय । त्वम् । न: । देव । दातवे । रयिम् । दानाय । चोदय ॥२०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
विषय - बा+यज्ञ
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिए (अग्निभिः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्गियों के द्वारा [पिता वै गार्हपत्योऽनिर्मातानिर्दक्षिणः स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ।] (ब्रह्म यज्ञं च) = ज्ञान और यज्ञ का (वर्धय) = वर्धन कीजिए। माता से उत्तम चरित्र को, पिता से उत्तम आचार [व्यवहार] को तथा आचार्य से उत्तम ज्ञान को प्राप्त करके हम ज्ञानेन्द्रियों से सदा ज्ञान का वर्धन करनेवाले बनें तथा कर्मेन्द्रियों से यज्ञात्मक उत्तम कर्मों को करनेवाले हों। २. हे देव-सब ऐश्वयों को देनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (न:) = हमारे (दातवे) = दानशील पुरुष के लिए (दानाय) = दान के लिए (रसिं चोदय) = धन को प्रेरित कीजिए। हम दानशीला बनें और दान के लिए आपसे धनों को प्राप्त करें।
भावार्थ -
उत्तम माता-पिता व आचार्य के सम्पर्क में आकर हम ज्ञान व यज्ञ का वर्धन करें। खूब दानशील हों, दान के लिए प्रभु धन देंगे ही।
इस भाष्य को एडिट करें