अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रवायू
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
इ॑न्द्रवा॒यू उ॒भावि॒ह सु॒हवे॒ह ह॑वामहे। यथा॑ नः॒ सर्व॒ इज्जनः॒ संग॑त्यां सु॒मना॑ अस॒द्दान॑कामश्च नो॒ भुव॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒न्द्र॒वा॒यू इति॑ । उ॒भौ । इ॒ह । सु॒ऽहवा॑ । इ॒ह । ह॒वा॒म॒हे॒ । यथा॑ । न॒: । सर्व॑: । इत् । जन॑: । सम्ऽग॑त्याम् । सु॒ऽमना॑: । अस॑त् । दान॑ऽकाम: । च॒ । न॒: । भुव॑त् ॥२०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रवायू उभाविह सुहवेह हवामहे। यथा नः सर्व इज्जनः संगत्यां सुमना असद्दानकामश्च नो भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रवायू इति । उभौ । इह । सुऽहवा । इह । हवामहे । यथा । न: । सर्व: । इत् । जन: । सम्ऽगत्याम् । सुऽमना: । असत् । दानऽकाम: । च । न: । भुवत् ॥२०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
विषय - जितेन्द्रियता क्रियाशीलता
पदार्थ -
१. (इह) = इस जीवन में (सुहवा) = शोभन है पुकार [आराधना] जिनकी उन (उभौ) = दोनों (इन्द्रवायू) = जितेन्द्रियता व क्रियाशीलता को हम (हवामहे) = पुकारते हैं। हम क्रियाशील व जितेन्द्रिय बनते हैं। २. हम इसलिए इन्द्र और वायु का आराधन करते हैं कि (यथा) = जिससे (इह) = इस संसार में (न:) = हमारे (संगत्याम्) = संगमन में, मिलने के अवसर पर (सर्वः इत् जन:) = सभी मनुष्य (सुमनाः असत्) = उत्तम मनवाले हों-परस्पर मिलने पर सबको प्रीति का अनुभव हो (च) = और (न:) = हमारे ये लोग (दानकामः) = दान की कामनावाले, सदा धनों को देने की इच्छावाले (भुवत्) = हों।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय व क्रियाशील बनें। परस्पर मिलने पर प्रीति का अनुभव करें और दान की वृत्तिवाले हों।
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