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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - वायुः, त्वष्टा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त

    गो॒सनिं॒ वाच॑मुदेयं॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि। आ रु॑न्धां स॒र्वतो॑ वा॒युस्त्वष्टा॒ पोषं॑ दधातु मे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गो॒ऽसनि॑म् । वाच॑म् । उ॒दे॒य॒म् । वर्च॑सा । मा॒ । अ॒भि॒ऽउदि॑हि । आ । रु॒न्धा॒म् । स॒र्वत॑: । वा॒यु: । त्वष्टा॑ । पोष॑म् । द॒धा॒तु॒ । मे॒ ॥२०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोसनिं वाचमुदेयं वर्चसा माभ्युदिहि। आ रुन्धां सर्वतो वायुस्त्वष्टा पोषं दधातु मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोऽसनिम् । वाचम् । उदेयम् । वर्चसा । मा । अभिऽउदिहि । आ । रुन्धाम् । सर्वत: । वायु: । त्वष्टा । पोषम् । दधातु । मे ॥२०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (गोसनिम्) = ज्ञान की वाणियों का ही सम्भजन करनेवाली (वाचम्, उदेयम्) = वाणी को मैं बोलूँ-हमारी वाणियाँ ज्ञानवर्धक शब्दों का ही उच्चारण करें। हे प्रभो! (वर्चसा) = तेजस्विता के साथ (मा अभि) = मेरी ओर (उदिहि) = आइए-आप मुझे तेजस्वी बनाइए। 'गोसनि वाक' का उच्चारण करता हुआ मैं ज्ञानी बनें और वर्चस्वी होऊँ। २. मुझे (सर्वतः) = सब ओर से (वायुः) = प्राणशक्ति और क्रियाशीलता (आरुन्धाम्) = रुद्ध करे। मैं सदा प्राणशक्ति-सम्पन्न ब क्रियाशील बना रहूँ। (त्वष्टा) = बह रूपों का निर्माता प्रभु में (पोषं दधातु) = मुझमें पोषण को धारण करे।

    भावार्थ -

    मैं ज्ञान, वर्चस्, क्रियाशीलता व पोषण को धारण कर। विशेष-इसप्रकार जीवन को सब वसुओं से सम्पन्न करनेवाला 'वसिष्ठ' ही अगले सूक्त का भी ऋषि है -

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