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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 22

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त

    मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततुः। दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्र: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । इन्द्र॑: । रु॒द्र: । च॒ । चे॒त॒तु॒ । दे॒वास॑: । वि॒श्वऽधा॑यस: । ते । मा॒ । अ॒ञ्ज॒न्तु॒। वर्च॑सा ॥२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रश्च वरुणश्चेन्द्रो रुद्रश्च चेततुः। देवासो विश्वधायसस्ते माञ्जन्तु वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्र: । च । वरुण: । च । इन्द्र: । रुद्र: । च । चेततु । देवास: । विश्वऽधायस: । ते । मा । अञ्जन्तु। वर्चसा ॥२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १.(मित्र:) = स्नेह की भावना (च) = और (वरुण:) = निषता का भाव (च) = तथा (इन्द्र:) = जितेन्द्रियता की दिव्य भावना (च) = और (रुद्रः) = [रुत्-द्र] रोगों को दूर भगाने का संकल्प-ये सब (चेततु:) = हमें अनुग्राह्यरूप में जानें-इनके अनुग्रह से हमारा शरीर सबल बना रहे। २.(देवास:) = सूर्य-चन्द्र आदि सब देव (विश्वधायस:) = सबका धारण करनेवाले हैं, (ते) = वे (मा) = मुझे (वर्चसा) = तेज से (अजन्तु) = [अक्त] आश्लिष्ट करें। इन देवों के सम्पर्क में जीवन को बिताता हुआ मैं तेजस्वी बनें।

    भावार्थ -

    'स्नेह, निर्देषता, जितेन्द्रियता व नीरोगता' की भावनाएँ मुझे सबल बनाएँ। सूर्यादि देवों के सम्पर्क में मेरा जीवन तेजस्वी बने।

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