अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
सूक्त - वसिष्ठः
देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त
ह॒स्ती मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑मति॒ष्ठावा॑न्ब॒भूव॒ हि। तस्य॒ भगे॑न॒ वर्च॑सा॒भि षि॑ञ्चामि॒ माम॒हम् ॥
स्वर सहित पद पाठह॒स्ती । मृ॒गाणा॑म् । सु॒ऽसदा॑म् । अ॒ति॒स्थाऽवा॑न् । ब॒भूव॑ । हि । तस्य॑ । भगे॑न । वर्च॑सा । अ॒भि । सि॒ञ्चा॒मि॒ । माम् । अ॒हम् ॥२२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्ती मृगाणां सुषदामतिष्ठावान्बभूव हि। तस्य भगेन वर्चसाभि षिञ्चामि मामहम् ॥
स्वर रहित पद पाठहस्ती । मृगाणाम् । सुऽसदाम् । अतिस्थाऽवान् । बभूव । हि । तस्य । भगेन । वर्चसा । अभि । सिञ्चामि । माम् । अहम् ॥२२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 6
विषय - अतिष्ठावान्
पदार्थ -
१. (सुषदाम्) = [सुखेन सीदन्ति] अरण्य में स्वेच्छा से आसीन होनेवाले (मृगाणाम्) = हरिण आदि पशुओं में (हस्ती) = हाथी (हि) = निश्चय से (अतिष्ठावान् बभूव) = सबको लाँघकर स्थितिवाला सबसे आगे बढ़ा हुआ है। हाथी का बल सबसे अधिक है। २. (तस्य) = उस हाथी के (भगेन) = भजनीय सेवनीय (वर्चसा) = बल से (अहम) = मैं (माम्) = अपने को (अभिषिञ्चामि) = अभिषिक्त करता है। मैं भी बल के दृष्टिकोण से अपनों में आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील होता हैं।
भावार्थ -
जैसे हाथी पशओं में सर्वाधिक बली है. इसीप्रकार मैं अपने सजातियों में सर्वाधिक बली बनने के लिए यत्नशील होता हूँ।
विशेष -
सुरक्षित शक्ति के द्वारा उत्तम सन्तानों का निर्माण करनेवाला यह साधक 'ब्रह्मा' [creater] बनता है। यह जिन सन्तानों को जन्म देता है, वे चन्द्रतुल्य सुन्दर मुखवाले होते हैं। अगले सूक्त का ऋषि यह ब्रह्मा है और देवता 'चन्द्रमाः' है -