अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - चन्द्रमाः, योनिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वीरप्रसूति सूक्त
येन॑ वे॒हद्ब॒भूवि॑थ ना॒शया॑मसि॒ तत्त्वत्। इ॒दं तद॒न्यत्र॒ त्वदप॑ दू॒रे नि द॑ध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । वे॒हत् । ब॒भूवि॑थ । ना॒शया॑मसि । तत् । त्वत् । इ॒दम् । तत् । अ॒न्यत्र॑ । त्वत् । अप॑ । दू॒रे । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
येन वेहद्बभूविथ नाशयामसि तत्त्वत्। इदं तदन्यत्र त्वदप दूरे नि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । वेहत् । बभूविथ । नाशयामसि । तत् । त्वत् । इदम् । तत् । अन्यत्र । त्वत् । अप । दूरे । नि । दध्मसि ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
विषय - वेहत्वापादक पाप-रोग का विनाश
पदार्थ -
१. जिस बन्ध्यत्व के आपादक पाप से व तज्जन्य रोग से हे नारि! तू (वेहत्) = [विशेषेण हन्ति गर्भम्] गर्भधातिनी वन्ध्या (बभूविथ) = हो जाती है, उस पाप आदि को (त्वत्) = तुझसे (नाशयामसि) = नष्ट करते हैं। २. (इदम्) = इस (तत्) = उस वेहत्व के आपादक पाप-रोग आदि को (त्वत्) = तुझसे (अत्यन्त दुरे) = अन्य स्थान पर-दूर देश में (अपनिदध्मसि) = अपक्षिप्त करते हैं-कहीं सुदूर देश में फेंकते हैं।
भावार्थ -
जिस भी पाप-रोग से बन्ध्यत्व की उत्पत्ति होती है, उसे उचित उपाय द्वारा दूर करते हैं।
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