अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - चन्द्रमाः, योनिः
छन्दः - स्कन्धोग्रीवी बृहती
सूक्तम् - वीरप्रसूति सूक्त
यासां॒ द्यौष्पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता स॑मु॒द्रो मूलं॑ वी॒रुधां॑ ब॒भूव॑। तास्त्वा॑ पुत्र॒विद्या॑य॒ दैवीः॒ प्राव॒न्त्वोष॑धयः ॥
स्वर सहित पद पाठयासा॑म् । द्यौ: । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता । स॒मु॒द्र: । मूल॑म् । वी॒रुधा॑म् । ब॒भूव॑ । ता: । त्वा॒ । पु॒त्र॒ऽविद्या॑य । दैवी॑: । प्र । अ॒व॒न्तु॒ । ओष॑धय: ॥२३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यासां द्यौष्पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव। तास्त्वा पुत्रविद्याय दैवीः प्रावन्त्वोषधयः ॥
स्वर रहित पद पाठयासाम् । द्यौ: । पिता । पृथिवी । माता । समुद्र: । मूलम् । वीरुधाम् । बभूव । ता: । त्वा । पुत्रऽविद्याय । दैवी: । प्र । अवन्तु । ओषधय: ॥२३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
विषय - दैवी ओषधियाँ
पदार्थ -
१. (यासाम्) = जिन (वीरुधाम्) = विरोहणस्वभावा ओषधियों का (द्यौः) = द्युलोक (पिता) = वृष्टिजलरूप में रेतस् का सेचन करनेवाला उत्पादक पिता (बभूव) = है और उस रेतस को धारण करनेवाली (पृथिवी) = पृथिवी (माता) = जनयित्री है और जिन वीरुधों का (समुद्रः) = स्यन्दनशील जलराशिरूप समुद्र ही (मूलम्) = मूलकारण है। समुद्र ही से तो वाष्पीभूत होकर जल मेषरूप में परिणत होकर बरसता है। २. (ता:) = वे (देवी) = सब रोगों को जीतने की कामना करनेवाली (ओषधयः) = दोषों का दहन करनेवाली ओषधियों (त्वा) = तुझे (पुत्रविद्याय) = पुत्र की प्राप्ति के लिए (प्रावन्तु) = प्रकर्षण रक्षित करें।
भावार्थ -
उत्तम वानस्पतिक पदार्थों का प्रयोग हमें नीरोग बनाए व नीरोग सन्तानों को प्रास करानेवाला हो।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि 'भृगु' है-तपस्वी [भ्रस्ज पाके] यह वानस्पतिक पदार्थों का प्रयोग करता है। यह प्रभु के सन्देश को इस रूप में प्रकट करता है -