अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - उदीचीदिक् सवाताः प्रविध्यन्तः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दिक्षु आत्मारक्षा सूक्त
ये॒स्यां स्थोदी॑च्यां दि॒शि प्र॒विध्य॑न्तो॒ नाम॑ दे॒वास्तेषां॑ वो॒ वात॒ इष॑वः। ते नो॑ मृडत॒ ते नोऽधि॑ ब्रूत॒ तेभ्यो॑ वो॒ नम॒स्तेभ्यो॑ वः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒स्याम् । स्थ । उदी॑च्याम् । दि॒शि । प्र॒ऽविध्य॑न्त: । नाम॑ । दे॒वा: । तेषा॑म् । व॒: । वात॑: । इष॑व: । ते । न॒: । मृ॒ड॒त॒ । ते । न॒: । अधि॑ । ब्रू॒त॒ । तेभ्य॑: । व॒: । नम॑: । तेभ्य॑: । व॒: । स्वाहा॑ ॥२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
येस्यां स्थोदीच्यां दिशि प्रविध्यन्तो नाम देवास्तेषां वो वात इषवः। ते नो मृडत ते नोऽधि ब्रूत तेभ्यो वो नमस्तेभ्यो वः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठये । अस्याम् । स्थ । उदीच्याम् । दिशि । प्रऽविध्यन्त: । नाम । देवा: । तेषाम् । व: । वात: । इषव: । ते । न: । मृडत । ते । न: । अधि । ब्रूत । तेभ्य: । व: । नम: । तेभ्य: । व: । स्वाहा ॥२६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 4
विषय - उदीच्यां दिशि प्रविध्यन्तो नाम देवाः
पदार्थ -
१. प्रत्याहार का पाठ पढ़कर अब मनुष्य ऊपर उठता है-उन्नत होता है। यही उद्दीची दिक् [उद्+अञ्च-ऊपर उठना] है। (ये) = जो (अस्याम्) = इस (उदीच्यां दिशि) = उदीची दिशा में उत्तर दिशा में (प्रविध्यन्त:) = सब शत्रुओं का वेधन करके ऊपर उठनेवाले 'प्रविध्यन्' नामक (देवाः स्थ) = देव है, (तेषां वः) = उन आपका यह (वात:) = वायु (इषवः) = प्रेरक है। वायु गति के द्वारा सब मलों का संहार करता है। शरीर में प्राण के रूप में यह सब दोषों को दग्ध करता है ('प्राणायामैदहेद् दोषान्')। यह वायु हमें भी उत्कृष्ट गति द्वारा सब बुराइयों के संहार का उपदेश करता है। २. (ते) = वे प्रविध्यन् नामक देवो! (नः मृडत) = हमें सुखी करो। (ते) = वे आप (न:) = हमारे लिए (अधिबूत) = आधिक्येन उपदेश दो। (तेभ्यः वः) = उन आपके लिए (नमः) = नमस्कार हो। (तेभ्य:व:) = उन आपके लिए (स्वाहा) = हमारा समर्पण हो। आपके सम्पर्क में हम भी 'प्रविध्यन्' नामक देव बनें।
भावार्थ -
उदीची दिक् हमें ऊपर उठने की प्रेरणा दे। सब बाधाओं को विद्ध करके हम उन्नत होते चलें। वायु से गति के द्वारा सब दोषों को दग्ध करने की प्रेरणा लें।
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