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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - बृहस्पतियुक्ता अवस्वन्तः छन्दः - जगती सूक्तम् - दिक्षु आत्मारक्षा सूक्त

    ये॒स्यां स्थोर्ध्वायां॑ दि॒श्यव॑स्वन्तो॒ नाम॑ दे॒वास्तेषां॑ वो॒ बृह॒स्पति॒रिष॑वः। ते नो॑ मृडत॒ ते नोऽधि॑ ब्रूत॒ तेभ्यो॑ वो॒ नम॒स्तेभ्यो॑ वः॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒स्याम् । स्थ । ऊ॒र्घ्वाया॑म् । दि॒शि । अव॑स्वन्त: । नाम॑ । दे॒वा: । तेषा॑म् । व॒: । बृह॒स्पति॑: । इष॑व: । ते । न॒: । मृ॒ड॒त॒ । ते । न॒: । अधि॑ । ब्रू॒त॒ । तेभ्य॑: । व॒: । नम॑: । तेभ्य॑: । व॒: । स्वाहा॑ ॥२६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येस्यां स्थोर्ध्वायां दिश्यवस्वन्तो नाम देवास्तेषां वो बृहस्पतिरिषवः। ते नो मृडत ते नोऽधि ब्रूत तेभ्यो वो नमस्तेभ्यो वः स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अस्याम् । स्थ । ऊर्घ्वायाम् । दिशि । अवस्वन्त: । नाम । देवा: । तेषाम् । व: । बृहस्पति: । इषव: । ते । न: । मृडत । ते । न: । अधि । ब्रूत । तेभ्य: । व: । नम: । तेभ्य: । व: । स्वाहा ॥२६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो (अस्याम्) = इस (ऊर्खायाम्) = उन्नति की चरमसीमारूप ऊर्ध्वा (दिशि) = दिक् में (अवस्वन्तः नाम) = 'अपना पूर्णतया रक्षण करनेवाले' अवस्वान् नामक (देवाः स्थ) = देव हैं। जो अपना पूर्ण रक्षण करते हैं, वे ही ऊर्वा दिक् के अधिपति बनते हैं-उन्नति की पराकाष्ठा तक पहुँच पाते हैं। (तेषां व:) = उन आपका (बृहस्पतिः इषवः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु ही प्रेरक है। हृदयस्थ प्रभु से प्रेरणा प्राप्त करते हुए ये प्रभु के समान ही बनने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुत: ज्ञान ही हमारा रक्षण करता है। ज्ञानाग्नि में सब बुराइयों भस्म हो जाती हैं। (ते नः मृडत) = वे अवस्वान् नामक देव हमपर अनुग्रह करें। (ते न: अधिबूत) = वे हमारे लिए आधिक्येन उपदेश देनेवाले हों (तेभ्य: व: नम:) = उन आपके लिए नमस्कार हो। (तेभ्यः वः स्वाहा) = उन आपके लिए हमारा समर्पण हो।

    भावार्थ -

    हम ज्ञान के द्वारा अपना पूर्णतया रक्षण करते हुए ऊर्ध्वा दिक् के अधिपति बनें। अगले सूक्त का ऋषि भी 'अथर्वा' ही है।

     

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