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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः, प्राचीदिशा, अग्निः, असितः, आदित्यगणः छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भाष्टिः सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    प्राची॒ दिग॒ग्निरधि॑पतिरसि॒तो र॑क्षि॒तादि॒त्या इष॑वः। तेभ्यो॒ नमोऽधि॑पतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राची॑ । दिक् । अ॒ग्नि: । अधि॑ऽपति: । अ॒सि॒त: । र॒क्षि॒ता । आ॒दि॒त्या: । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म:। तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म॒: ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राची । दिक् । अग्नि: । अधिऽपति: । असित: । रक्षिता । आदित्या: । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म:। तम् । व: । जम्भे । दध्म: ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (प्राची दिक्) = [प्र अञ्च] आगे बढ़ने की दिशा है। इसमें उदित होकर सूर्य आगे और-आगे बढ़ता है। इसीप्रकार इस दिशा का संकेत प्राप्त करके जो आगे बढ़ता चलता है, वह एक दिन इस प्रगति का (अधिपतिः) = स्वामी होता है। इसका नाम (अग्नि:) = अग्नि हो जाता है। इसने आगे बढ़ते हुए अपने आपको अग्रस्थान पर प्राप्त कराया है। इस प्रगति का (रक्षिता) = रक्षक (असित:) = अ+सित है-अबद्ध है। जो विषयों से बद्ध नहीं हुआ वही प्रगति के मार्ग का पथिक होता है। इस प्रगति के लिए निरन्तर आगे बढ़ते हुए (आदित्या:) = सूर्य (इषवः) = प्रेरक हैं। सूर्य से प्रेरणा प्राप्त करके हम सूर्य के समान निरन्तर आगे बढ़ते हैं। २. (तेभ्यः नम:) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों के लिए नमस्कार हो। (रक्षितृभ्यः नमः) = उन्नति के रक्षकों के लिए नमस्कार हो। (इषुभ्यः) = उन्नति की प्रेरणा देनेवालों के लिए (नमः) नमस्कार हो। (एभ्य:) = इन सबके लिए हमारा नमस्कार अस्तु हो। (य:) = जो अकेला (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके साथ द्वेष करता है और (यम्) = जिससे (वयम्) = हम सब (द्विष्मः) = प्रीति नहीं करते (तम्) = उस समाज-द्वेषी को (व:) = आपके (जम्भे) = न्याय के जबड़े में (दध्मः) = स्थापित करते हैं। स्वयं दण्ड देने की अपेक्षा यही उचित है कि उसे अधिकारियों को सौंप दिया जाए। स्वयं दण्ड देने से तो अव्यवस्था ही बढ़ेगी।

    भावार्थ -

    हम 'प्राची दिक्' का ध्यान करते हुए आगे बढ़ें। इस दिशा के अधिपति 'अग्नि' बनें। विषयों से अबद्ध होकर आगे बढ़ते चले जाएँ। सूर्य से आगे बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त करें। इन सब अग्नि आदि के लिए आदर का भाव रखें। जो द्वेष करे, उसे उन्हें सौंप दें, जिससे वे उसे उचित दण्ड आदि की व्यवस्था से द्वेषरहित करें।

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