अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - सौषधिका निलिम्पाः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - दिक्षु आत्मारक्षा सूक्त
ये॒स्यां स्थ ध्रु॒वायां॑ दि॒शि नि॑लि॒म्पा नाम॑ दे॒वास्तेषां॑ व॒ ओष॑धी॒रिष॑वः। ते नो॑ मृडत॒ ते नोऽधि॑ ब्रूत॒ तेभ्यो॑ वो॒ नम॒स्तेभ्यो॑ वः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒स्याम् । स्थ । ध्रु॒वाया॑म् । दि॒शि । नि॒ऽलि॒म्पा: । नाम॑ । दे॒वा: । तेषा॑म् । व॒: । ओष॑धी: । इष॑व: । ते । न॒: । मृ॒ड॒त॒ । ते । न॒: । अधि॑ । ब्रू॒त॒ । तेभ्य॑: । व॒: । नम॑: । तेभ्य॑: । व॒: । स्वाहा॑ ॥२६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
येस्यां स्थ ध्रुवायां दिशि निलिम्पा नाम देवास्तेषां व ओषधीरिषवः। ते नो मृडत ते नोऽधि ब्रूत तेभ्यो वो नमस्तेभ्यो वः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठये । अस्याम् । स्थ । ध्रुवायाम् । दिशि । निऽलिम्पा: । नाम । देवा: । तेषाम् । व: । ओषधी: । इषव: । ते । न: । मृडत । ते । न: । अधि । ब्रूत । तेभ्य: । व: । नम: । तेभ्य: । व: । स्वाहा ॥२६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
विषय - धुवायां दिशि निलिम्पा नाम देवा
पदार्थ -
१. उन्नति के लिए नींव की दृढ़ता व स्थिरता आवश्यक है, अत: ध्रुवा दिशा आती है। यह स्थिरता का पाठ पढ़ाती है। (ये) = जो (अस्याम्) = इस (धुवायां दिशि) = धूवा दिक् में (निलिम्पा: नाम) = उस उन्नति के कार्य में नितरां लिप्त हो जानेवाले-उन्नति में ही लिस व आश्रित [लगे हुए] निलिम्प नामक (देवाः स्थ) = देव हैं। ये शत्रुओं को विद्ध करके ब्रह्मरूप लक्ष्य के वेधन का प्रयत्न करते हैं-(प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेदव्यं शरबत्तन्मयो भवेत्॥ तेषां वः) = उन आपकी (ओषधी: इषवः) = व्रीहि यवादि ओषधियाँ प्रेरक है। इन सब ओषधियों की जड़ें भूमि में जितनी दृढ़ हो जाती हैं, उतनी ही ये फूलती-फलती हैं। इसप्रकार हम जितना आधार को दृढ़ बनाएँगे उतना ही उन्नत हो पाएँगे। २. (ते) = वे निलिम्प नामक देवो! (नः मृडत) = हमपर अनुग्रह करो। (ते) = वे (आपन:) = हमारे लिए (अधिबूत) = आधिक्येन उपदेश दो। (तेभ्यः वः) = उन आपके लिए (नम:) = नमस्कार हो। (तेभ्यः वः) = उन आपके लिए (स्वाहा) = हमारा समर्पण हो।
भावार्थ -
निलिम्प नामक देववृत्ति के पुरुषों के सम्पर्क में हम भी निलिम्प बनें, उन्नति के कार्यों में स्थिरता से लगे रहें।
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