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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त

    प॒थ्या॑ रे॒वती॑र्बहु॒धा विरू॑पाः॒ सर्वाः॑ सं॒गत्य॒ वरी॑यस्ते अक्रन्। तास्त्वा॒ सर्वाः॑ संविदा॒ना ह्व॑यन्तु दश॒मीमु॒ग्रः सु॒मना॑ वशे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒थ्या᳡: । रे॒वती॑: । ब॒हु॒ऽधा । विऽरू॑पा: । सर्वा॑: । स॒म्ऽगत्य॑ । वरी॑य: । ते॒ । अ॒क्र॒न् । ता: । त्वा॒ । सर्वा॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒ना: । ह्व॒य॒न्तु॒ । द॒श॒मीम् । उ॒ग्र: । सु॒ऽमना॑: । व॒श॒ । इ॒ह ॥४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पथ्या रेवतीर्बहुधा विरूपाः सर्वाः संगत्य वरीयस्ते अक्रन्। तास्त्वा सर्वाः संविदाना ह्वयन्तु दशमीमुग्रः सुमना वशेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पथ्या: । रेवती: । बहुऽधा । विऽरूपा: । सर्वा: । सम्ऽगत्य । वरीय: । ते । अक्रन् । ता: । त्वा । सर्वा: । सम्ऽविदाना: । ह्वयन्तु । दशमीम् । उग्र: । सुऽमना: । वश । इह ॥४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (पत्था:) = मार्ग पर चलनेवाली-नियमों को न तोड़नेवाली (रेवती:) = धन-सम्पन्न, बहुधा (विरूपा:) = कई प्रकार से विभिन्न रूपोंवाली (सर्वा:) = सब प्रजाओं ने (संगत्य) = मिलाकर (ते) = तेरे लिए इस (वरीयः) = उत्कृष्ट श्रेष्ठ पद को (अक्रन्) = किया है। राष्ट्र की सब प्रजाएँ मिलकर राजा का वरण करती हैं। उन्हें चुनने का अधिकार नहीं होता जो [क] नियमभङ्ग के कारण दण्डित हों अथवा [ख] बिल्कुल न कमाते हों, कुछ भी कर न देते हों। २. (ता:) = ये (सर्वा:) = सब प्रजाएँ (संविदान:) = संज्ञान-[ऐकमत्य]-वाली होती हुई (त्वा) = तुझे इस सिंहासन को सुशोभित करने के लिए (यन्तु) = पुकारें । (उग्र:) = तेजस्वी-शुत्रभयंकर व (सुमना:) = सब प्रजाओं के लिए शुभ मनवाला तू (इह) = इस सिंहासन पर (दशमीम् वश) = अपने दसवें दशक की-सौ वर्ष के आयुष्य की कामना कर। राजा स्वयं दीर्घजीवी बने और प्रजाओं को दीर्घजीवी बनाने के लिए यत्नशील हो।

    भावार्थ -

    सब प्रजाएँ मिलकर राजा का वरण करें। राजा तेजस्वी व उत्तम मनवाला होता हुआ प्रजा को दीर्घजीवी बनाने के लिए यत्नशील हो।

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