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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त

    आ प्र द्र॑व पर॒मस्याः॑ परा॒वतः॑ शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म्। तद॒यं राजा॒ वरु॑ण॒स्तथा॑ह॒ स त्वा॒यम॑ह्व॒त्स उ॑पे॒दमेहि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प्र । द्र॒व॒ । प॒र॒मस्या॑: । प॒रा॒ऽवत॑: । शि॒वे इति॑ । ते॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । स्ता॒म् । तत् । अ॒यम् । राजा॑ । वरु॑ण: । तथा॑ । आ॒ह॒ । स: । त्वा॒ । अ॒यम् । अ॒ह्व॒त् । स: । उप॑ । इ॒दम् । आ । इ॒हि॒ ॥४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ प्र द्रव परमस्याः परावतः शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्। तदयं राजा वरुणस्तथाह स त्वायमह्वत्स उपेदमेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । प्र । द्रव । परमस्या: । पराऽवत: । शिवे इति । ते । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । स्ताम् । तत् । अयम् । राजा । वरुण: । तथा । आह । स: । त्वा । अयम् । अह्वत् । स: । उप । इदम् । आ । इहि ॥४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. हे राजन्! तू (परमस्याः परावतः) = अत्यन्त सुदुर प्रदेश से भी आ (प्रद्रव) = राष्ट्र की ओर शीघ्रता से आनेवाला हो। कार्यवश राजा को सुदूर प्रदेशों में भी जाना हो तो वह वहाँ विलम्ब न करके शीघ्र अपने राष्ट्र में उपस्थित होने का ध्यान करे। (ते) = तेरे लिए (द्यावापृथिवी उभे) = ये युलोक और पृथिवीलोक दोनों ही (शिवे) = कल्याणकर (स्ताम्) = हों। राष्ट्र में घुलोक से वृष्टि ठीक रूप में होकर पृथिवी में पर्याप्त अन्न पैदा करनेवाली हो। वस्तुतः राष्ट्र की उत्तम व्यवस्था पर ही अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि कष्टों का दूर होना सम्भव होता है। २. (अयम्) = यह राजा-सारे ब्रह्माण्ड का शासक (वरुण:) = सब कष्टों का निवारण करनेवाला प्रभु (तत्) = उस बात को तथा उस प्रकार (आह) = कहता है। प्रभु ने वेद में स्पष्ट कह दिया है कि राजा के अपराध से ही आधिदैविक कष्ट आया करते हैं-'न वर्ष मैत्रावरुणं ब्रह्मण्यमभि वर्षति । (सः अयम्) = वे ये प्रभु ही (त्वा) = तुझे (अह्वत्) = इस सिंहासन पर पुकारते हैं। राजा को प्रभु का प्रतिनिधि-कार्यकर बनकर उत्तमता से शासन करना चाहिए। (स:) = वह तू (इदम्) = इस राष्ट्रपति के आसन को (उप ऐहि) = समीपता से प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    राजा कार्यवश कहीं भी जाए, वहाँ से शीघ्र ही राष्ट्र में लौटने का ध्यान करे। उत्तम राष्ट्र व्यवस्था पर ही 'ठीक से वृष्टि होना व पृथिवी का अन्न उत्पन्न करना'निर्भर करता है। राजा अपने को प्रभु का कारिन्दा समझे और इसी भावना को लेकर सिंहासन पर बैठे।

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