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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राजासंवरण सूक्त

    त्वां विशो॑ वृणतां रा॒ज्या॑य॒ त्वामि॒माः प्र॒दिशः॒ पञ्च॑ दे॒वीः। वर्ष्म॑न्रा॒ष्ट्रस्य॑ क॒कुदि॑ श्रयस्व॒ ततो॑ न उ॒ग्रो वि भ॑जा॒ वसू॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । विश॑: । वृ॒ण॒ता॒म् । रा॒ज्या᳡य । त्वाम् । इ॒मा: । प्र॒ऽदिश॑: । पञ्च॑ । दे॒वी: । वर्ष्म॑न् । रा॒ष्ट्रस्य॑ । क॒कुदि॑ । श्र॒य॒स्व॒ । तत॑: । न॒: । उ॒ग्र: । वि । भ॒ज॒ । वसू॑नि ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवीः। वर्ष्मन्राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । विश: । वृणताम् । राज्याय । त्वाम् । इमा: । प्रऽदिश: । पञ्च । देवी: । वर्ष्मन् । राष्ट्रस्य । ककुदि । श्रयस्व । तत: । न: । उग्र: । वि । भज । वसूनि ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे राजन् ! (त्वाम्) = तुझे (विश:) = प्रजाएँ (राज्याय) = राज्य के लिए (वृणताम्) = वरें। (त्वाम्) = तुझे (इमा:) = ये (पञ्च) = विस्तृत [पचि विस्तारे] (देवी:) = दिव्य गुणयुक्त (प्रदिश:) = प्रकृष्ट दिशाएँ-इन दिशाओं में निवास करनेवाले व्यक्ति राज्य के लिए चुनें। इनसे चुने गये आप इस देश के शासन को संभालनेवाले हों। यहाँ 'पञ्च' का भाव चार दिशाएँ और एक मध्य भाग मिलकर 'पाँचों प्रदेश' यह भी लिया जा सकता है। भाव इतना ही है कि राजा का चुनाव सब मिलकर करें। २. इसप्रकार चुनाव हो जाने पर तू (राष्ट्रस्य) = राष्ट्र के (वर्ष्मन् ककुदि) = [वर्मन्-Handsome or lovely] सुन्दर शिखर पर-ऊँचे सिंहासन पर-सर्वोच्च पद पर (श्रयस्व) = आश्रय कर । (तत:) = उस उच्चावस्था से (उग्र:) = तेजस्वी होता हुआ तू (न:) = हमारे लिए (वसूनि विभज) = धनों का उचित विभाग कर । राजा का यह भी एक मौलिक कर्तव्य है कि वह धन को कुछ पुरुषों में केन्द्रित न होने दे। धन का उचित विभाग राष्ट्र-शरीर के रक्षण के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि इस शरीर के रक्षण के लिए रुधिर का किसी एक स्थान में केन्द्रित न होने देना।

    भावार्थ -

    सब मिलकर राजा का चुनाव करें। चुने जाने पर राजा इस बात का ध्यान रक्खे कि सम्पत्ति कुछ पुरुषों में ही केन्द्रित न हो जाए।

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