अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
आ त्वा॑ गन्रा॒ष्ट्रं स॒ह वर्च॒सोदि॑हि॒ प्राङ्वि॒शां पति॑रेक॒राट्त्वं वि रा॑ज। सर्वा॑स्त्वा राजन्प्र॒दिशो॑ ह्वयन्तूप॒सद्यो॑ नम॒स्यो॑ भवे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ग॒न् । रा॒ष्ट्रम् । स॒ह । वर्च॑सा । उत् । इ॒हि॒ । प्राङ् । वि॒शाम् । पति॑: । ए॒क॒ऽराट् । त्वम् । वि । रा॒ज॒ ।सर्वा॑: । त्वा॒ । रा॒ज॒न् । प्र॒ऽदिश॑: । ह्व॒य॒न्तु॒ । उ॒प॒ऽसद्य॑: । न॒म॒स्य᳡: । भ॒व॒ । इ॒ह ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा गन्राष्ट्रं सह वर्चसोदिहि प्राङ्विशां पतिरेकराट्त्वं वि राज। सर्वास्त्वा राजन्प्रदिशो ह्वयन्तूपसद्यो नमस्यो भवेह ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । गन् । राष्ट्रम् । सह । वर्चसा । उत् । इहि । प्राङ् । विशाम् । पति: । एकऽराट् । त्वम् । वि । राज ।सर्वा: । त्वा । राजन् । प्रऽदिश: । ह्वयन्तु । उपऽसद्य: । नमस्य: । भव । इह ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - उपसद्य, नमस्य
पदार्थ -
१. राज्याभिषेक के समय पुरोहित कहता है [आजकल की भाषा में स्पीकर या न्यायाधीश शपथ दिलाता हुआ कहता है]-हे राजन्! (त्वा) = तुझे (राष्ट्रम्) = यह राष्ट्र (आ अगन्) = प्राप्त हुआ है। तू इस राष्ट्र में (वर्चसा सह उद् इहि) = शक्ति के साथ उत्कृष्ट गतिवाला हो। तू शक्तिशाली बनकर शासन करनेवाला बन । तेरी सारी गति अत्यन्त उत्कृष्ट हो। (प्राइ) = [प्रअञ्च] अग्रगतिवाला होता हुआ (विशांपति:) = प्रजाओं का रक्षक तू (एक-राट) = अद्वितीय शासक अथवा मुख्य शासक [एक-मुख्य, केवल] होता हुआ (त्वम्) = तू विराज-विशिष्ट दीप्तिवाला हो। प्रजाओं के जीवन को व्यवस्थित [regulated] करनेवाला हो। २. हे (राजन्) = राष्ट्र के व्यवस्थापक! (सर्वा:प्रदिश:) = सब विस्तृत दिशाएँ-इन दिशाओं में रहनेवाले लोग (त्वा) = तुझे (हयन्तु) = पुकारें, अर्थात् शासनकार्य के लिए तुझे चुनें। तू (इह) = यहाँ शासक पद पर आसीन होकर (उपसद्य:) = सबके लिए अभिगम्य [Approachable] तथा (नमस्य:) = आदरणीय (भव) = हो। तेरे शासनकार्य की उत्तमता के लिए आवश्यक है कि तू प्रजाओं की ठीक स्थिति से परिचित हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि तू प्रजाओं के लिए अभिगम्य हो। तेरे शासन में न्याय-व्यवस्था इतनी ठीक हो कि तू सभी के आदर का पात्र बने।
भावार्थ -
राजा प्रजाओं के लिए 'उपसद्य व नमस्य' हो।
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