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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

    पृ॒ष्ठात्पृ॑थि॒व्या अ॒हम॒न्तरि॑क्ष॒मारु॑हम॒न्तरि॑क्षा॒द्दिव॒मारु॑हम्। दि॒वो नाक॑स्य पृ॒ष्ठात्स्व॑१र्ज्योति॑रगाम॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒ष्ठात्‌ । पृ॒थि॒व्या: । अ॒हम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । आ । अ॒रु॒ह॒म् । अ॒न्तरि॑क्षात् । दिव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒म् । दि॒व: । नाक॑स्य । पृ॒ष्ठात् । स्व᳡: । ज्योति॑: । अ॒गा॒म् । अ॒हम् ॥१३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृष्ठात्पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम्। दिवो नाकस्य पृष्ठात्स्व१र्ज्योतिरगामहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृष्ठात्‌ । पृथिव्या: । अहम् । अन्तरिक्षम् । आ । अरुहम् । अन्तरिक्षात् । दिवम् । आ । अरुहम् । दिव: । नाकस्य । पृष्ठात् । स्व: । ज्योति: । अगाम् । अहम् ॥१३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (पृथिव्याः पृष्ठात्) = पृथिवी के पृष्ठ से (अहम्) = मैं (अन्तरिक्षम् आरुहम्) = अन्तरिक्षलोक में आरोहण करूँ। जब मनुष्य भोगों से ऊपर उठकर रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है, तब वह अगला जन्म मर्त्यलोक में न लेकर अन्तरिक्षलोक-चन्द्रलोक में ही लेता है। चन्द्रलोकवासी व्यक्ति "पित' संज्ञावाले होते हैं। २. (अन्तरिक्षात्) = अन्तरिक्ष से भी ऊपर उठकर मैं (दिवम् आरुहम्) = धुलोक का आरोहण करूँ। ज्ञान-प्रधान जीवन बिताने पर देवयान से चलते हुए हम द्यलोक-सूर्यलोक में जन्म लेते हैं। यहाँ हमारा नाम देव हो जाता है। ३. यही स्वर्गलोक है। यहाँ दु:ख नहीं, अत: इसे 'नाकम्' [न अकम् अस्मिन्] कहते हैं। इस (नाकस्य पृष्ठात्) = स्वर्ग के पृष्ठरूप (दिवः) = धुलोक से भी ऊपर उठकर (अहम्) = मैं (स्व: ज्योति:) = स्वयं देदीप्यमान ज्योति ब्रह्म को (अगाम) = प्राप्त होऊँ।

    भावार्थ -

    'पृथिवी से अन्तरिक्ष में, अन्तरिक्ष से धुलोक में, स्वर्गपृष्ठ धुलोक से ब्रह्मलोक में'-यह है हमारा यात्रा-क्रम। इसे पूर्ण करते हुए हम ब्रह्म को प्राप्त हों।

     

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