अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
सूक्त - भृगुः
देवता - आज्यम्, अग्निः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
पञ्चौ॑दनं प॒ञ्चभि॑र॒ङ्गुलि॑भि॒र्दर्व्योद्ध॑र पञ्च॒धैतमो॑द॒नम्। प्राच्यां॑ दि॒शि शिरो॑ अ॒जस्य॑ धेहि॒ दक्षि॑णायां दि॒शि दक्षि॑णं धेहि पा॒र्श्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ऽओदनम् । प॒ञ्चऽभि॑: । अ॒ङ्गुलि॑ऽभि: । दर्व्या॑ । उत् । ह॒र॒ । प॒ञ्च॒ऽधा । ए॒तम् । ओ॒द॒नम् । प्राच्या॑म् । दि॒शि । शिर॑: । अ॒जस्य॑ । धे॒हि॒ । दक्षि॑णायाम् । दि॒शि । दक्षि॑णम् । धे॒हि॒ । पा॒र्श्वम् ॥१४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चौदनं पञ्चभिरङ्गुलिभिर्दर्व्योद्धर पञ्चधैतमोदनम्। प्राच्यां दिशि शिरो अजस्य धेहि दक्षिणायां दिशि दक्षिणं धेहि पार्श्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्चऽओदनम् । पञ्चऽभि: । अङ्गुलिऽभि: । दर्व्या । उत् । हर । पञ्चऽधा । एतम् । ओदनम् । प्राच्याम् । दिशि । शिर: । अजस्य । धेहि । दक्षिणायाम् । दिशि । दक्षिणम् । धेहि । पार्श्वम् ॥१४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 7
विषय - पञ्चौदन
पदार्थ -
१. जैसे ओदन [भात] अंगुलियों व दवी [कड़छी] से निकाला जाता है, उसी प्रकार ज्ञान का ओदन [भोजन] भी अंगुलियों से [अगि गती], अर्थात् गतिशीलता से तथा दीं से अर्थात् [द विदारणे] वासनाओं के विदारण से उद्धृत हुआ करता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला यह ओदन 'पञ्चौदन' कहलाता है। प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (पञ्चभिः अंगुलिभिः) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सम्यग् गतियों के द्वारा तथा (दर्व्या) = वासना-विदारण के द्वारा (पञ्चधा) = पाँच भागों में बँटे हुए 'शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध' भेद से पाँच प्रकार के एतं (ओदनम्) = इस जान को जोकि 'आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी' रूप पाँचों भूतों का ज्ञान होने से (पञ्चौदनम्) = पञ्चौदन कहलता है, उस ज्ञान को (उद्धर) = कुएँ से पानी प्राप्त करने की भांति आचार्यों से प्राप्त कर । २. ज्ञान को प्राप्त करता हुआ तू (अजस्य) = [अज गतिक्षेपणयो:] गति के द्वारा सब बुराइयों को परे फेंकनेवाले उस आत्मा के (शिर:) = शरीरस्थ सिर [मस्तिष्क] को (प्राच्यां दिशि धेहि)-प्राची दिशा में स्थापित कर । यह ज्ञान-प्राप्ति के कार्य में निरन्तर प्रगतिशील [प्र अञ्च] हो। मस्तिष्क का प्राची में स्थापन यही है कि यह ज्ञान-प्राप्ति में निरन्तर आगे और आगे बढ़ता चले। २. इस अज के (दक्षिण पाश्वम्) = दाहिने पासे को (दक्षिणायां दिशि) = दक्षिण दिशा में धेहि-स्थापित कर। इस अज के शरीर का यह दक्षिण हस्त कार्यों को दाक्षिण्य से करनेवाला हो। ज्ञानी पुरुष को कर्मों को कुशलता से करना ही शोभा देता है।
भावार्थ -
पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की ठीक गतियों व वासना-विनाश के द्वारा हम आचार्यों से पञ्चभूतात्मक संसार का ज्ञान प्राप्त करें। मस्तिष्क को जान-प्राप्ति के मार्ग में निरन्तर गतिबाला बनाएँ तथा हमारा दक्षिण हस्त दाक्षिण्य से कर्म करनेवाला हो।
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