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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 9
    सूक्त - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

    शृ॒तम॒जं शृ॒तया॒ प्रोर्णु॑हि त्व॒चा सर्वै॒रङ्गैः॒ संभृ॑तं वि॒श्वरू॑पम्। स उत्ति॑ष्ठे॒तो अ॑भि॒ नाक॑मुत्त॒मं प॒द्भिश्च॒तुर्भिः॒ प्रति॑ तिष्ठ दि॒क्षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ॒तम् । अ॒जम् । शृ॒तया॑ । प्र । ऊ॒र्णु॒हि॒ । त्व॒चा । सर्वै॑: । अङ्गै॑: । सम्ऽभृ॑तम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । स: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । इ॒त: । अ॒भि । नाक॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । दि॒क्षु॒ ॥१४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृतमजं शृतया प्रोर्णुहि त्वचा सर्वैरङ्गैः संभृतं विश्वरूपम्। स उत्तिष्ठेतो अभि नाकमुत्तमं पद्भिश्चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृतम् । अजम् । शृतया । प्र । ऊर्णुहि । त्वचा । सर्वै: । अङ्गै: । सम्ऽभृतम् । विश्वऽरूपम् । स: । उत् । तिष्ठ । इत: । अभि । नाकम् । उत्ऽतमम् । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । प्रति । तिष्ठ । दिक्षु ॥१४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्रों में वर्णित साधना के अनुसार (शृतम्) = जिसका ठीक परिपाक हुआ है, उस (अजम्) = गतिशीलता के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले व्यक्ति को (शृतया) = त्वचा से (प्रोहि) = आच्छादित कर, अर्थात् तपस्या के द्वारा हम त्वचा को कठोर बनाएँ। इसप्रकार शरीर बीमारियों का शिकार नहीं होगा। इस 'अज' में (सर्वैः अङ्ग:) = पूर्ण स्वस्थ [सर्व-Whole] अङ्गों से (विश्वरूपं संभृतम्) = सम्पूर्ण शरीर का सौंदर्य संभृत हुआ है। २.हे अज ! (स:) = वह तू (इत:) = यहाँ से-इस पार्थिवलोक में निवास से (नाकम् अभि) = मोक्ष की ओर (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ा हो। तू (दिक्ष) = सब दिशाओं में, अर्थात् सर्वत्र (चतुर्भिः पद्धिः) = 'धमार्थ-काममोक्ष रूप चारों पगों के द्वारा (प्रतितिष्ठ) = जीवन-यात्रा में प्रस्थित हो। अथवा 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' रूप चारों धर्मों का पालन करता हुआ तू मोक्ष की ओर बढ़।

    भावार्थ -

    हम तपस्या की अग्नि में अपना ठीक परिपाक करें। हमारी त्वचा तपः परिपक्व हो, शरीर स्वस्थ अङ्गों के सौन्दर्य से परिपूर्ण हो तथा 'स्वाध्याय, यज्ञ, तप व दान' रूप चार धर्मों के पालन के द्वारा हम मोक्ष की ओर बढ़ें।

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